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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२४९

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उपसाहर (ङ)
वसिष्ठ

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ इक्ष्वाकुवंशियों के कुलगुरु थे, परन्तु इतिहास को इस बात के मानने में बड़ा संकोच है कि एक ही वसिष्ठ इक्ष्वाकु से श्रीरामचन्द्र तक ६२ पीढ़ी के कुलगुरु रहें और प्रधान मंत्री का काम करें। सूर्यवंश के इतिहास में वसिष्ठ का नाम सब से पहले विकुक्षि के साथ आया है। विष्णुपुराण में लिखा है कि राजा इक्ष्वाकु ने विकुक्षि को श्रष्टका श्राद्ध के लिए मांस लाने भेजा। उसने बन में जाकर अनेक पशु मारे, परन्तु जब वह थक गया और उसे बड़ी भूख लगी तो एक खरहा खा गया। घर लौट कर उसने सारा मांस राजा के सामने रख दिया। राजा ने अपने कुलगुरु वसिष्ठ से श्राद्ध के लिए मांस धोने को कहा। वसिष्ठ ने उत्तर दिया कि यह मांस दूषित हो गया है क्योंकि तुम्हारे दुरात्मा पुत्र ने इस में से एक शशक भक्षण कर लिया है।

यही वसिष्ट श्रीमद्भागवत् के अनुसार इक्ष्वाकु के पुत्र विदेहराज स्थापन करनेवाले राजा निमि के यज्ञ में ऋत्विक् बनाये गये थे जिसका वर्णन उपसंहार (ग) में है।

ये दोनों वसिष्ठ एक ही हो सकते हैं।

इसके बाद वसिष्ठ इक्ष्वाकु की ३०वीं पीढ़ी पर त्रय्यारुण के राज में प्रकट होते हैं। हम पहिले लिख चुके हैं कि एक साधारण अपराध के लिए त्रय्यारुण ने अपने बेटे सत्यव्रत को देशनिकाला दे दिया था, और आप दुःखी होकर बन को चला गया। तब वसिष्ठ ने बारह वर्ष तक अयोध्या का शासन किया। त्रय्यारुण के पीछे सत्यव्रत को विश्वामित्र ने गद्दी पर बैठाया। सत्यव्रत त्रिशंकु के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसने सदेह स्वर्ग जाने की अभिलाषा पहिले वसिष्ठ से कही, फिर वसिष्टपुत्रों से