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पृष्ठ:अहिंसा Ahimsa, by M. K. Gandhi.pdf/४९

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“अगर जर्मनीमें कोई यहुदी गान्धी पैदा हो जाय, तो वह छगभग पांच ही शिनट काम कर सकेगा, ओर फौरन उसका सिर उड़ा दिया जायगा।

सगर इससे सेरा मामका खारिज नहीं हो जाता और न इससे मेरी अहिंसाकी दक्तिमें जो अद्वा हैँ उसे कोई, धवक्ा ऊगता है ।जिन अधिनायकोंका अहिसामें कोई विध्णास नहीं है उनकी भूख शान्त करनेके लिए हजारों नहीं तो सेफड़ोंके बलिदामकी आवदयकाता तो होभी ही, यह मेंकल्पना कर सकता हूं। बड़ी से बड़ी हिसाफे सामने भी अधहिसा अपनी अमोध-शक्ति दिखाती हैँ ।यह अहिसाकी व्यास्याका सच्चा सूत्र है । ऐसे ही प्रसंगोंपर उसके गुणकी असर कसौदी होती हूँ । कष्ड उठानेबालोंको अपने जीवन-कालमें परिणाम देखनेकी जरूरत गहीं । उन्हें तो यही श्रद्धा रखनी चाहिये कि यदि उनकी सृत्युके बाद उनका सिद्धान्त जीवित रह गया तो परिणासका

आना निश्चित ही है । हिसाका तरीका अहिसाके तरीकेसे कोई बहुत घड़ी गारंटी' नहीं दिखाता । बह तो इतनी कग गारंटी दिलाता है कि जिसकी कोई हद नहीं । कारण यह है कि अहिशाके

पुजारीकी श्रद्धाका उससें अभाव होता है।

लेखककी बहुस इस बात पर है कि“मेने यहुदियोंकी समस्यापर बगैर उस एकाग्रता और सत्यकी तीतन्र शोभफे छिख भाश,

जिनसे कि अन्य समस्याओंसे पेश आते समय ,में साधारणतया काम लेता हूँ।' इसपर तो में इतना ही कह सकता हूँकि जहाँ तक मुझे मालूम है, जब मेने बहू लेल लिखा तब न तो मुझमें एकाग्रताका अभाव था और न सत्यकी तीब्र ज्ञोधका ही । लेखफका बुसरा आरोप कहीं अधिक गंभोर है। उनका ख्याल हैकि सेरे हिन्तू-सुसलिम ऐफ्पफी हिसा-

यतने सुझे अरबोंके दाबेके प्रति पक्षपाती बना दिया, खासकर जब्य कि उस पहलूफा स्वभावत: हिल्कुस्तानमें जोर दिया गया है । सेंगे अक्सर यह कहा हैकि सुसलभानोंकी सिश्रता हापसिछ करनेकी तो बात ही कया है,हिन्दुस्तानको सुक्तिकी खातिर भी मेंसत्यको नहीं बेचूंगा । लेखकका ख्याल है कि जिस तरह मेने खिलाफतके प्रइनके संबंध गलती फी थी उसी तरह यहुद्रियोंके

प्रदनके संबंधसे भी सछती कर रहा हूँ । इतना अधिक ससय गुजर जानेपर भी भैने जो खिलाफतका मामला हाथमें लिया था उसपर मुझे जरा भी अफसोस नहीं है । में यह जानता हूँकि मेरा यह आभ्रह साबित नहीं करता कि सेरा रक्ष कहाँ तक सही था। जरूरत केवल इतना

भर जान छैने को है कि अपने १९१९-२०के कार्यके बारेसें सें आज क्या विचार रखता हूँ। भें इस बातकों जानता हूँऔर मुझे इस ब्ातका दुःख है. कि गरे उस लिखनेसे न तो ज्यूइश फ्रांडियरकेसंपादककोही संतोष होगा, और न मेरे अवेक यहुदी सिन्रोंको ही । फिर भी में थह दिलसे चाहता हूँ कि किसी-न-किसी तरह जमंन्ीके यहुवियोंका उत्पीड़न खत्म हो जाय, और फिलस्तोनका सवाल इस तरह तथ हो जाय कि जिससे सभी संबंधित पक्षोंक्ी संतोष हो सके । हरिजन सेवक

२७ भई, १९३९ 9055