अहिंसा . बनाम स्वाभिमान प्रदन--में एक विदवविद्यालयका छात्र हैँ। कल शामको हम कुछ छोग सिनेभा देखने गये थे । खेलके बी चमें ही हममेंसे दोबाहर गये और अपनी' जगहोंपर रूमाल छोड़ गये । छौठने पर हमने
देखा कि दो अंग्रेज सिपाही उन बैठकोंपर बेतकल्लफीसे कब्जा किये हुए हे । उन्होंने हमारे मित्रोंकी साफ-साफ चेतावनी और अनुनय-विनयकी कुछभी परवाह नहीं की और जब जगह खाली करनेके लिए कहा गया तो उन्होंने इन्कार ही'नहीं किया, लड़नेकी भी आमादा ही गये । उन्होंने सिनेभाके
मैनेजरकों भी धमका दिया । वह हिन्दुस्तानी था,इसलिए आसानीसे दब गया । अन्तमें छावमीका अफसर बुलाया गया तब उन्होंने जगह खाली की । वह न आया होता तो हमारे सामने दो ही उपाय
थे। था तो हम मारपीट पर उतर पड़ते और स्वाभिमानकी रक्षा करते या दवकर चुपचाप दूसरी जगह बैठ जाते । पिछली' बातमें बड़ा अपमान हीता ।
उलर--में स्वीकार करता हूँकि इस पहेलीकों हुल करना मुश्किल हैँ। ऐसी स्थितिका अहिसक तरीकेपर मुकाबिला करनेके दो उपाय सुसते हे। पहज़ा यह कि जबतक जगहें खाली मे होंअपनी घातपर मजबूतीसे अड़े रहमा। बूसरा यह कि जगह छीन लेनवालोकि सामने जाम-बूझकरइस तरहखड़ेहो जाना कि उन्हें तमाशा विखायी नदे। दोनों सुरतोंमें भापकी
पिहाई होनेका जोखम है। मुझे अपने उत्तरसे सन्तोष महीं है। मगर हम जिस विशेष परिस्थितिमें हैं,उससें इससे काम् चल जाथगा। बेशक) आदर्श जवाब तो यह हैकि मिजी अधिकार छिन जानेफी हस परवाह ते करें, बल्कि छीमनेबालोंकों समझायें। ने हमारी न सुनें तो सस्वत्पित अधिकारियोंसे शिकायत कर देंऔर बहाँ भी त्याय ते सिल्ले तो सामला ऊँची" से-ऊँधी अवालतमे ले जायें। यह कानूनका रास्ता
है। समाजकी अहिसक कत्पतामें इसको
सनाही नहीं है। कासूसको अपने हाथमें लेलेना असलमें अहिसक भाग ही है। पर इस देहामें आददों और बस्तुल्थितिका फोई सम्बन्ध नहों हे, क्योंकि जहाँ गोरोंका और खास तौर पर गोरे सिपाहियोंक! मामला हो वहाँ हिल्ुस्तानियोंको न्याय मिलतेकी प्रायः कुछ भो,
भाशा नहीं ही सकती। इसलिए जैसा सेने सुझाया हैकुछ बसा ही करनेकी जरूरत है। मगर से जानता हैंकि जब हमें सच्ची अहिसा होगी तो कठिन परिस्थितिसें होनेपश भी
हमें बिना प्रयत्नके ही कोई अहिसक उपाय सुझे जितना नहीं रहेगा। हरिज़स -सेपक १७ फरवरी, १५४०
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