हिसा "काग्रेस के सामने देशको शासन-व्यवस्थाकायही चित्र है, और इसीको रथापित करनेका नह यत्न गारेगी। काग्रेशका यह दृढ विश्वास है कि इस व्यवस्थाके कारण हिन्दुस्तानमें रहनेवाली सभी जातियो और धर्मों के लोग सुखी, सम्पन्न और स्वतंत्र रहेगे और इन तत्वोको नीवपर सब मिलकर एक महान् ओर गोरवशाली राष्ट्र निर्माण करेंगे।" मुझे श्री जयप्रकाशका यह प्रस्ताव पसन्द आया और मैंने कार्य-समितिको उनका पन्न और प्रस्तावका यह मस्थिदा पढ़कर सुनाया। लेकिन समितिने यह सोचा कि रामगढ़- कांग्रेसमें एक ही प्रस्ताव पास करनेकी बातपर स्टे रहना जरूरी है, और पटनामें जो मूल प्रस्ताव पास हुआ था उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन करना इष्ट नहीं है। समितिको यह दलील निरपचाव थी, इसलिए प्रस्तुत प्रस्तावके गुण-दोषोंकी चर्चा किये बिना ही उसे छोड़ दिया गया। मैने श्री जयप्रकाशको अपने प्रयत्नके परिणामसे सूचित कर दिया। उन्होंने मुझे लिखा कि इसके बाद आपको संतोष देनेपाली सबसे अच्छी बात यह होती कि नै उनके इस प्रस्तावको अपनी पूरी, मा जितनी में वे सा उतनी, सहमतिके साथ प्रकाशित कर । श्री जयप्रकाशकी इस इच्छाको पूरा करनेमे मुखो कोई कठिनाई नहीं मालूम बेली। एक ऐसे आदर्शको नाते, जिसे वेशके स्वतंत्र होते ही हमें कार्य रूपमें परिणत करना है, श्री अयप्रकाशको एक सूधमाको छोड़कर शेष सभी सूचनाओंका आमतौर पर समर्थन करता हूँ। मेरा पाया है कि आज हिन्दुस्तान में जो लोग समाजवासको अपना ध्येय मानते है, उनसे में बहुत पहले समाजवादको स्वीकार कर चुका था। लेकिन मेरा समाजवाब मेरे लिए सहज था, यह पुस्तकोंसे ग्रहण नहीं किया गया था। अहिंसामें मेरे अटल विश्वासका ही वह परि- णाम था। कोई भी आवमी, जो सकिय अहिंसा विश्वास करता है, सामाजिक अन्यायको, फिर यह कहीं भी क्यों न होता हो, पश्ति नहीं कर सकता-वह उसका विरोध किये बिना नहीं रह सकता। जहांतक मै जानता हूँ, दुर्भाग्यवश पश्चिमके समाजवाधियोने यह भार लिया है कि अपने समाजवादी सिद्धान्तोंको ये हिंसा द्वारा ही अमलमे ला सकते है। में सवासे यह मानता माया हूँ कि नीच-से-नीच और कमजोर-से-कमजोरके प्रति भी हम जोर जबर्वस्तीके जरिने सामाजिक न्यायका पालन नहीं कर सकते । मै यह भी मानता माया हूँ कि पतित-से-पतित लोगोंको भी मुनासिब तालीम दी जाय तो हिसक साधनों द्वारा सब प्रकारके अत्याचारोंका प्रतिकार किया जा सकता है। अहिंसक असहयोग ही उसका मुय साधन है। कभी-कभी असहयोग भी उतना ही कर्तव्य रूप हो जाता है, जिसमा कि सहयोग। अपनी विफलता या गुलामीमें खुद सहायक होने के लिए कोई बैंधा हुआ नहीं है। जो स्वतंत्रता दूसरों के प्रयानों द्वारा-फिर ये कितने प्रबार क्यों न हो-मिलती है, वह उन प्रयत्नोंके न रहनेपर कायम नहीं रखी जा सकती। दूसरे शब्दों में, ऐसी स्वतंत्रता सच्ची स्वतंत्रता नहीं है । लेकिन जब पतित-से-पतित भी हिंसक असहयोग द्वारा अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करनेकी कला, सोख लेते हैं। तो ये उसके प्रकाशका अनुभव किये बिना नहीं रह सकते। इसलिए जब मैने श्री जयप्रकाशके इस प्रस्तावको पड़ा और देखा कि देश जिस किस्मकी ११ . 1
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