सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आँधी.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९८
आँँधी


ओत प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसे सचेष्ट बनाये रहता तब भी उसकी आखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठतीं । पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपड़ों को दो तीन बार ठीक किया फिर पूछा--और कुछ चाहिए ? मैं मुस्करा कर रह गया। उस वस त के प्रभात में सब लोग वह सुस्वादु और सुगन्धित ठदई धीरे धीरे पी रहे थे और मैं साथ ही साथ अपनी श्राखों से उस बालिका के यौवनोमाद की माधुरी भी पी रहा था। चारों ओर से नीबू के फूल और आमो की मञ्जरियो की सुगध श्रा रही थी। नगरों से दूर देहातों से अलग कुए की वह छत ससार म जैसे सब से ऊँचा स्थान था। क्षण भर के लिए जैसे उस स्वप्न लोक में एक अप्सरा श्रा गई हो। सड़क पर एक बैलगाड़ीवाला बण्डलों से टिका हुआ आँख बन्द किए हुए बिरहा गाता था। बैलों के हाकने की जरूरत नहीं थी । वह अपनी राह पहचानते थे। उसके गाने म उपालम्भ था श्रावेदन था बालिका कमर पर हाथ रक्खे हुए बड़े यान से उसे सुन रही थी। गिरधरदास और रघुनाथ महाराज हाथ मुह धो पाये पर मैं वसे ही बैठा रहा। रघुनाथ महाराज उजडु तो थे ही उन्होंने हँसते हुए पूछा-

क्या दाम नहीं मिला ?

गिरधरदास,भी हँस पड़े। गुलाब से रंगी हुई उस बालिका की कनपटी और भी लाल हो गई। वह जैसे सचेत सी होकर धीरे धीरे सीढी से उतरने लगी। मैं भी जैसे तद्रा से चौंक उठा और सावधान होकर पान की गिलौरी मह में रखता हुश्रा इक्के पर आ बैठा । घोड़ा अपनी चाल से चला । घण्टे-डेढ घण्टे में हम लोग प्रयाग पहुँच गये। दूसरे दिन जब हम लोग लौटे तो देखा कि उस कुए की दालान में बनिए की दूकान नहीं है। एक मनुष्य पानी पी रहा था उससे पूछने पर मालूम हुआ कि गाँव में एक भारी दुर्घटना हो गई है। दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समय नशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दगा हो गया । वह बनिया भी उन्हीं में था । रात को उसी के मकान पर डाको