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पृष्ठ:आँधी.djvu/१०७

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नीरा

अब और आगे नहीं इस गंगी म कहा चलते हो देवनिवास ?

थोड़ी दूर और-कहते हुए देवनिवास ने अपनी साइकिल धीमी कर दी किन्तु पिरत अमरनाथ ने बक दवा कर ठहर जाना ही उचित समझा। देवनिवास आगे निकल गया। मौलसिरी का वह सघन वृक्ष था जो पोखरे के किनारे अपनी अधकारमयी छाया डाल रहा था। पोखरे से सड़ी हुई दुर्ग ध पा रही थी । देवनिवास ने पीछे घूम कर देखा मित्र को वहीं रुका देख कर वह लौट रहा था। उसके साइकिल का लम्प बुम चला था । सहसा धक्का लगा देवनिवास तो गिरते गिरते बचा और एक दुर्बल मनुष्य अरे राम कहता हुआ गिरफर भी उठ खडा हुआ । बालिका उसका हाथ पकड़ कर पूछने लगी-कहीं चोट तो नहीं लगी बाबा ?

नहीं बेटी ! मैं कहता न था मुझे मोटरों से उतना डर नहीं लगता जितना इस बे दुम के जानवर साइकिल से । मोटरवाले तो दूसरों को ही चोट पहुँचाते हैं पदल चलनेवालों को कुचलते हुए निकल जाते हैं। पर ये बेचारे तो आप भी गिर पड़ते हैं। क्यों बाबू साहब आपको तो चोट नहीं लगी ? हम लोग तो चोट-घाव सह सकते हैं।

देवनिवास कुछ झेप गया था। उसने बूढे से कहा-आप मुझे क्षमा कीजिए । आपको

क्षमा-मैं करूँ? अरे आप क्या कह रहे हैं | दोन्चार हूटर आपने नहीं लगाये। घर भूल गये हंटर नहीं ले पाये! अच्छा महोदय ! आपको कष्ट हुआ न, क्या करूँ मिना भीख माँगे इस सर्दी में पेट गालिया देने लगता है ! नींद भी नहीं पाती चार-छ पहरों पर तो