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पृष्ठ:आँधी.djvu/९३

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आँँधी

नन्दन ने हंसकर कहा कपिंजल ! यह राधा का गृह है तुम्हें उसके आज्ञानुसार यहाँ रहना होगा । छोड़ो पागलपन! चलो बहुत से प्राणी हम लोगों की सहायता के अधिकारी है। कपिंजल ने कहा-सो कैसे हो सकता है ? तुम्हारा हमारा संग | असम्भव है।

मुझे दण्ड देने के लिए ही तो तुमने यह स्वाग रचा था। राधा तो उसी दिन से निर्वासित थी और कल से मुझे भी अपने घर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं | कपिंजल ! आज तो हम और तुम दोनों बराबर और इतने अधमरा के प्राणों का दायित्व भी हमी लोगों पर है। यह प्रत भग नहीं व्रत का आरम्भ है । चलो इस दरिद्र कुटुम्ब के लिए अन्य जुटाना होगा।

कपिझल आज्ञाकारी बालक की भांति सिर झुकाये उठ खड़ा हुआ।