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पृष्ठ:आँधी.djvu/९७

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आँँधी


श्रीमती ने कहा-यह रोहिणी बहुत अच्छा गाने लगी और भी एक आश्चर्य की बात है यह गीत बनाती भी है गाती भी है। तुम्हारे गाँव की लड़कियाँ तो बड़ी गुनवती हैं । मैं हूँ कह कर उठ कर बाहर आने लगा देखा तो रोहिणी जवारा लिए खड़ी है। मैंने सिर झुका दिया यय की पतली-पतली लम्बी धानी पत्तियाँ मेरे कानों से अटका दी गई। मैं उस बिना कुछ दिये बाहर चला आया।

पीछे से सुना कि इस धृष्टता पर मेरी माता जी ने उसे बहुत फटकारा उसी दिन से कोट में उसका पाना ब द हुना।

नंदन बड़ा दुखी हुआ | उसने भी पाना बन्द कर दिया । एक दिन मैंने सुना उसी की सहेलियाँ उससे मेरे सम्बध में हसी कर रही थी । वह सहसा अत्यत डोजित हो उठी और बोली-तो इसमें तुम लोगों का क्या ? मैं मरती हूँ प्यार करती हूँ उहें तो तुम्हारी बला से ।

सहेलियों ने कहा-बाप रे । इसकी दिठाई तो देखो । वह और भी गरम होती गई । यहा तक उन लोगों ने रोहिणी को छेड़ा कि वह बकने लगी। उसी दिन से उसका बकना बदन हुश्रा | अब वह गांव में पगली समझी जाती है उसे अब लजा-संकोच नहीं जय जी में आता है गाती हुई घूमा करती है । सुन लिया तुमने यही कहानी है भला मैं उसे कैसे बुलाज

जीवनसिंह अपनी बात समाप्त करके चुप हो रहे और मैं कल्पना से फिर वही गाना सुनने लगा--

बरजोरी बसे हो नयना में।

सचमुच यह संगीत पास आने लगा | अब की सुनाई पड़ा-

मुरि मुसुक्याई पढ्यो कछु टोना

गारी दियो किधों मनवा में

घरजोरी बसे हो -