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पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१६०

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आकाश-दीप
 


था। मेरा प्रिय मुझे नहीं लेगा, उसी चिह्न को लेगा। इसलिए तुमसे विनती करती हूँ कि उसे दे दो।'

'यह अन्याय है। मेरी मजूरी मुझसे न छीनो।'

'मैं भीख माँगती हूँ।'

'मैं दरिद्र हूँ, देने में असमर्थ हूँ।'

निरुपाय होकर रमणी ने एकान्तवासी की ओर देखा। उसने कहा---"तुमने तो उसे लौटा देने के लिए ही रख छोड़ा है। वह देखो तुम्हारी उँगली में चमक रहा है, क्यों नहीं दे देते?"

'मैं समझ गया, इसका मूल्य परिश्रम से अधिक है तो चलो अब की दोनों की सेवा करके इसका मूल्य पूरा कर दूँ, परन्तु दया करके इसे मेरे ही पास रहने दो। जिन्हें विदेश जाना है उनको नौका की यात्रा बड़ी सुखद होती है।' कहकर एक बार उसने झोंपड़ी की ओर देखा। बुढ़िया मर चुकी थी। खाली झोंपड़ी की ओर से उसने मुँह फिरा लिया। डाँड़े जल में गिरा दिये।

रमणी ने कहा---चलो यात्रा तो करनी ही है, बैठ जायँ।

एकान्तवासी हँस पड़ा। दोनों नाव पर बैठ गये। नाव धारा में बहने लगी। रमणी ने हँसकर पूछा---'केवल देखोगे या खेओगे भी?'

'नाव स्वयं बहेगी; मैं केवल देखूँगा ही।'

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