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पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/११६

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१००
[ दूसरा
आदर्श महिला

हम लोगों की सारी अशान्ति दूर हो गई है। तुम्हारे पैर रखने से तपोवन उस अमरावती के समान हो गया है जिसमें न बुढ़ापा है, न मौत। देवी! इस संकल्प को छोड़ दो। इस नये राज्य में तुम अमङ्गल का धोखा मत करो। तुम्हारे प्रभाव से अमङ्गल तो यहाँ से भाग ही गया है।

सावित्री ने कहा---नाथ! देहधारी जीव जन्म, बुढ़ापे और मृत्यु के अधीन हैं। जब हम लोग देहधारी हैं तब आधि-व्याधि तो हमें सदैव घेरे हुए ही हैं। इसलिए व्रत, उपवास और दान हम लोगों का सबसे मुख्य काम है। देव! आप इस दासी को शास्त्र की आज्ञा पालने से क्यों रोकते हैं?

अब सत्यवान ने हारकर कहा---"नहीं सावित्री! नहीं, मैं तुमको कभी रोकूँगा नहीं। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो।" सावित्री मन ही मन "तथास्तु" कहती हुई आश्रम-वासी और मुनियों के चरण छूकर उनसे आशीर्वाद ले आई।

[ ९ ]

व्रत करनेवाली सावित्री ने कठोर साधना में मन लगाया। एक दिन बीत गया, दूसरा दिन बीत गया और तीसरा दिन भी बीता। अब रात हुई। सावित्री को ख़बर नहीं है। व्रत में मग्न योगिनी के सामने बीस पहर बीत गये, तो भी उसको होश नहीं है। उसकी कठिन साधना से देवता का आसन डोल गया। वेद-माता सावित्री ने बेटी की इस अपूर्व भक्ति से बहुत प्रसन्न हो ब्रह्मा से जाकर कहा---भक्तों पर दया करनेवाले प्रजापति! यह देखो, वरदान से उपजी हुई मेरी बेटी ने स्वामी को बड़ी उम्र दिलाने की आशा से आँखें मूँदकर तीन रातवाला व्रत शुरू किया है। मैं उस पर प्रसन्न हूँ। आज