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पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/११९

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आख्यान ]
१०
सावित्री

[ १० ]

जेठ का महीना है---कृष्ण पक्ष की चौदस तिथि है। पृथिवी सन्ध्या की लाली के लाल वस्त्र को और डूबत हुए सूर्य के लाल-लाल चन्दन का टीका धारण कर शोभा पा रही है। सावित्री ने देखा कि पतिदेव कन्धे पर कुल्हाड़ी रखकर वन को जाना चाहते हैं। सावित्री ने तुरन्त सत्यवान के पास आकर कहा--नाथ! सन्ध्या की आरती का समय हो चला है, आप इस समय कहाँ जाते हैं?

सत्यवान---आज चौदस है, अग्निहोत्री ब्राह्मण को सायंकाल की सन्ध्या करना ज़रूरी नहीं। पिता के होम की लकड़ी चुक गई है। सबेरे होम के लिए उसकी ज़रूरत होगी। इससे जी में आया है कि इस समय कुछ जंगली फल-मूल और लकड़ियाँ बटोर लाऊँ।

सावित्री ने कहा--सन्ध्या हो गई है। अब असमय वन में जाने की कोई ज़रूरत नहीं। कुटी में जो फल-मूल रक्खे हैं उनसे कल का काम हो जायगा। हाँ, होम के लिए लकड़ी तो नहीं है।

सत्यवान---सावित्री! रोको मत। माता-पिता का काम करने में सन्तान पर विपद नहीं पड़ती।

सावित्री---नाथ! मैं खूब जानती हूँ कि माता-पिता के लिए काम करने में सन्तान पर विपद नहीं आती। पर आज एक बाधा है। मेरे त्रिरात्र व्रत का नियम है कि आज आठ पहर मुझे स्वामी के साथ रहना होगा। जो तुम इस समय वन जाओ तो मुझे भी साथ लेते चलो।

सत्यवान ने यह बात मान ली। सास-ससुर की आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ सावित्री लकड़ी बटोरने के लिए वन में गई।

सावित्री मन लगाकर यही सोच रही है कि यह काल-रात्रि