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पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/३८

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२६
[ पहला
आदर्श महिला

रावण के चले जाने पर सीता देवी बिजली-भरे बादलों की तरह काँपने लगीं। उनके नेत्रों से निकला हुआ अश्रु-जल मानो रावण की ऐश्वर्यमयी लङ्का को बहा ले जाकर काल-समुद्र में डाल देने का उद्योग करने लगा। इस प्रकार, सती सीता राक्षस-वंश के सत्यानाश का महामन्त्र जपते-जपते दिन काटने लगीं।

एक दिन वे सोचने लगीं कि आर्य्यपुत्र ने क्या अब तक मेरा पता नहीं पाया! जिस समय दुष्ट पापी मुझे हरकर ले चला उस समय का मेरा आर्त्तनाद क्या, मुँह खोलकर कहनेवाले, किसी प्राणी को नहीं सुन पड़ा? मेरे फेंके हुए भूषण क्या आर्य्य रामचन्द्र को नहीं मिले? दुखियों को शरण देनेवाला वृद्ध जटायु क्या आर्य्य- पुत्र से भेंट होने के पहले ही अपना शरीर छोड़कर नित्यधाम को चला गया? इस प्रकार के चिन्तास्रोत में डूबती-उतराती सीताजी दिन बिताने लगीं।

[ ६ ]

रामचन्द्र स्वर्ण-मृग को मारने के बाद राक्षस के मुँह उलटा शब्द सुनकर बड़ी तेज़ी से आश्रम को लौटे। अचानक मार्ग में लक्ष्मण को देखकर वे बोले—"भाई लक्ष्मण! राक्षस की चालबाज़ी से हम लोग ठगे गये हैं। आज स्वर्ण-मृग के कपट से रघुकुल की वधू राक्षस के हाथ में पड़ गई है। भाई लक्ष्मण! सब चौपट हुआ। अवश्य ही दुष्ट राक्षस ने माया करके सीता को हर लिया है।" इस तरह कहते-कहते दोनों भाइयों ने बड़ी तेज़ी से आकर देखा कि अँधेरे घर की रोशनी सीता कुटी में नहीं हैं। सीता बिना वह कुटी मानो काटने दौड़ती थी। "हाय सीता! कहाँ गई, हाय सीता! कहाँ गई," कह-कहकर रामचन्द्र क्षण ही क्षण मूर्छित होने लगे। लक्ष्मण बड़ी कठिनाई से रामचन्द्र को सचेत करके तरह-तरह से समझाने लगे।