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आराधना से यदि किसी किसी को प्राप्त हो तो हो सकता है।
और हुआ भी तो उसका फल क्या? केवल यही न कि
"कभी न मरना!" परंतु क्या कभी न मरनेवाले की मुक्ति
हो सकती है? नहीं। पाप पुण्य का प्रपंच सदा ही, स्वर्ग
में जाने पर भी उनके पोछे लट्ठ बाँधे तैयार रहता है और इस
प्रपंच की बदौलत प्राणी फिर गिरता है और फिर सँभलता
है। बड़े बड़े देवता, बड़े बड़े ऋषि मुनि ऐसे प्रपंचों से गिरते
हुए पुराणों में देखें गए हैं किंतु इस अमृत में प्रपंच का लेश
नहीं, चढ़ने के अनंतर गिरने का स्वप्न नहीं, और जो कभी
दैत्यराज हिरण्यकशिपु का सा घोर शत्रु गिराने का प्रयत्न करे
तो प्रह्लाद भक्त की तरह उसे हाथों हाथ ले लेनेवाला तैयार।
इसका प्रमाण इसी से है -- "घरौं देह नहिं आन निहारे।"
यही भगवान् की वेदविहित आज्ञा है केवल उसके पादपद्मों में
डोरी बाँध देनवाला चाहिए। पंडित प्रियानाथ के हद्गत भावों
का यहा निष्कर्ष है। शास्त्रकारों ने मुक्ति चार प्रकार की
बललाई है -- सामीप्य, सारूप्य, सालोक्य और सायुज्य।
भगवान् के भक्त जब मोक्ष नहीं चाहते, मोक्ष से, सायुज्य मुक्ति
से जब उनका अस्तित्व ही जाता रहता है और इसलिये उन्हें
घड़ी घड़ी, पल पल, विपल विपल ईश्वर की भक्ति करने का
अलौकिक आनंद मिलना बंद हो जाता है तब उन्हें यदि
चाहिए तो केवल सामीप्य मुक्ति। बस इसके द्वारा वे
सदा भगवान् के चरणारविंदों में लोटते रहें और भक्तिरस के
आ० हिं०--७