गत प्रकरण में लिखा हुआ नोटिस पढ़ते ही पंडित प्रिया-
नाथ ने अपने बँधे बंधाए विस्तर खेल दिए, इक्कों में रक्खा
हुआ सामान उतार लिया और निश्चय कर लिया कि जब तक
इस चिनौती का निराकरण न हो जाय यहाँ से चलना उचित
नहीं। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि उनको १०००
पाने का लोभ आ गया। नहीं! यह लोभी नहीं थे। उन्होंने
उसी समय वाचस्पति से मिलकर प्रतिज्ञा कर ली, करा ली थी
कि यह द्रव्य यदि मिल जाय और मिल ही जाना चाहिए, तो
लोकोपकार में लगाना। वाचस्पति ने इस सिलसिले में और
भी रूपया इकट्ठा हो जाने की आशा दी क्योंकि यह सवाल
केवल एक हजार रुपए का ही नहीं था। इसके फैसले पर
समस्त गयावालों की जीविका का दारमदार था। यदि हार
हो जाय तो उनके चूल्हों में पानी पड़ जाने का भय था। इस
कारण लोगों में बड़ा जोश फैल गया था। सबसे पहले
मदद देने को पंडित जी के गयागुरू जी ही तैयार हुए। उनका
अनुकरण औरों ने किया और इस तरह एक अच्छी रकम
इकट्ठी हो गई। किंतु क्या केवल रुपया ही इकट्ठा होने से
बाजी जीत सकते हैं? शास्त्रार्थ करने के लिये विद्वान् चाहिए
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