सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आलम-केलि.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पालम कैलि विदा फरि मोहि दै तूं वादि ही यदावै बैठी, - फान्ह को वदन देसि घेदनि यहै है री। 'पालमा विलंबिये ना चलि श्राली लालन पै, लाख ललना की दुति लखे ही लजैहै री ॥३५॥ छख छाडि छिन छिया छयाली छचोले बोलि, छोड़िहै न हा हा क्रिये. मेरे पायँ छू गरी । नाग तीय तिनके री तन तन तातिये, तिन तन तनकहीं तिन तोहि तू न री। फोछे थाछे स्वच्छ कान्ह कालिंदी के फच्छ कथि, 'आलम' कछु उछाह गावे तेरे शून री।' सुनि प्यारी सोच न सकोच ऐसे लोवनन, चलि चित चाइ चाहि रचि चीर चूनरी ॥३६॥ चोली चार चोर है चरन धरिये को भई, चाहै पति रुचि के तू रचो मुखचारि की। नोर भरे फाहे. नये गोरज-नयनि नारि, _____टान फान्ह नेरे हुनी न्यारी सोऊ नारि की।' तर महतु हेतु ताते ही कहति तो सों, , 'धालमा कई सुआली अति मनुहारि को। मूरत न होहि रीग मुख मोरि मेग सिप, मान को गति सुनि मुरतो मुरारि की ॥३॥ धील भई रसनो रतिक रितुराज को, ग ' हीन भयो मायु, साते लासघन सीरी।