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वह कहे तो

रास्ता चलते भी लड़के उसे चिढ़ाते हैं, बंसी अब चिढ़कर किसी को गाली नहीं देता, न मारने चलता हैं, वह केवल मुस्करा देता हैं। वह मुस्कराहट विचित्र सी हैं। उसमें वेदना और उन्माद, दोनो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।

बंसी की विनय और सहृदयता वैसी ही हैं। वह ठीक समय पर काम भी सब करता हैं, पर उससे भूले बहुत होती हैं। वह अब उतना बुद्धिमान् कुशाग्र-बुद्धि नहीं रह गया।

सुहागी कौन हैं, कहाँ रहती हैं, यह जानने की बंसी ने कभी चेष्टा नही की। एक दिन उसके एक मित्र ने कहा—"बंसी, एक बात सुनोगे?"

"क्या बात?"

"वही सुहागी की बात।"

बंसी मुस्किराकर चुप हो गया।

"सुनोगे?" मित्र फिर कहा।

"कहो।"

"उसका व्याह कब हो रहा है।"

"व्याह?"

"हाँ।"

"किसका?"

"सुहागी का।"

"हुश।" बंसी ने मुस्किराकर मुँह फेर लिया।

मित्र ने फिर कहा—

"क्या विश्वास नही?"

"होगा।" बंसी का स्वर धीमा पड़ गया, जैसे मरते हुए आदमी का हो जाता है।

मित्र ने कहा—"बारात आई हैं। दूल्हा देखोगे?"