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आवारागर्द


मैने आँखे पोंछी, फिर मलीं और आँखे फाड़-फाड़ कर बहिन को देखने लगा।

बहिन ने कहा "भैया, क्या तुम्हारा सिर फिर गया है?"

"तो तुम मरी नही हो?" मै धम्म से कुर्सी पर बैठ गया।

वह जल्दी से एक गिलास शरवत बना लाई और जबरदस्ती मुझे पिला दिया। फिर हँसकर कहा "अब़ देखो, जिन्दी हॅू या नहीं।"

मैने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और कहा—"बेशक तुम ज़िन्दी हो—मगरॱॱॱॱ"

"मगर क्या?"

"जीजा जी कहाँ हैं?"

"वे एक बरात में गये हैं।"

"यहाँ कब आये थे?"

"अभी सुबह ही तो गये हैं।"

" वे यहाॅ रोज़ आते है?"

"आज-कल दफ्तर में काम बहुत है, इसीसे अक्सर रातको वहीं रह जाते हैं। आज़-कल नौकरी का मामला ऐसा ही है भैया।"

अब मै मामला कुछ-कुछ समझा, मैने कहा "जीजा जी ने तो खेल अच्छा खेला। खैर देखा जायगा, तुझे अभी मेरे साथ चलना होगा। अभी इसी दम।"

"कहाँ?"

"घर।"

"क्यों? क्या बात है?"

"कुछ बात ही है, तू तैयार हो, नीचे मोटर खड़ी है।"

"लेकिन वे तो घर पर हैं नहीं।"

"तू चल तो सही।"