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मरम्मत

लाट साहेब हैं, एक गाड़ी क्या काफी नहीं? उनके वे दोस्त भी कोई आवारागर्द मालुम देते हैं, छुट्टियों में अपने घर न जा कर पराए घर आ रहे हैं, ईश्वर जाने उनका घर है भी या नहीं।"

रजनी आप ही आप बड़बड़ा रही थी। सूरज निकल आया था, धूप फैल गई थी, पर वह अभी बिछौने ही पर पड़ी थी। उसके कमरे मे कोई नौकर-नौकरानी नहीं आई थी, इसी से वह बहुत नाराज हो रही थी। एक हल्की फीरोजी ओढ़नी उसके सुनहरे शरीर पर अस्त-व्यस्त पड़ी थी, चिकने और घूंघर वाले बाल चाँदी के समान मस्तक पर बिखर रहे थे। बड़ी बड़ी आंखे भरपूर नींद का सुख लूट कर थोड़ी लाल हो रही थी। गुस्से से उसके होठ सम्पुटित थे, भौहो मे बल थे, वह पलग पर औधी पड़ी थीं। एक मासिक पत्रिका उसके हाथों में थी। वह तकिये पर छाती रक्खे अनमने भाव से उसके पन्ने उलट रही थी।

रजनी की माँ का नाम सुनन्दा था। खूब मोटी ताजी, गुद-गुढ़ी ठिगनी स्त्री थी। जब वे फुर्ती से काम करतीं तो उनका गेढ़ की तरह लुढ़कना एक अजब बहार दिखाता था। वह एक अच्छी सुगृहिणी थी, दिन भर काम मे लगी रहती थी। उनके हाथ बेसन में भरे थे और पल्ला धरती मे लटक रहा था। उन्होंने जल्दी-जल्दी आकर कहा "वाह री रानी बेटी तेरे ढङ्ग तो खूब हैं| भैया घर मे आरहे हैं, दस काम अटके पड़े है और रानी जी पलंङ्ग पर पड़ी किताब पढ़ रही हैं। उठो जरा, रमिया हरामजादी आज अभी तक नही आई। जरा गुसलखाने मे धोती, गमछा, साबुन सब सामान ठिकाने से रख दो—भैया आकर स्नान करेंगे। उठ तो बेटी। अरी पराये घर तेरी कैसे पटेगी?"

रजनी ने सुनकर भी माँ की बात नहीं सुनी, वह उसी भाँति