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इन्दिरा।
१६

यहाँ पर किस के घर जाओगी?” मैं ने कहा,―“मैं यहां पर किसी को भी नहीं चिन्हती, किसी पेड़ के नीचे पढ़ रहूंगी।"

पथिक ने कहा, “तुम कौन जात हो?"

मैं ने कहा, “मैं कायस्थिनी हूँ।"

इस ने कहा, “मैं ब्राह्मण हूँ। तुम मेरे साथ आओ। तुम्हारा कपड़ा तो मैला ओर मोटा है; किन्तु तुम बाड़े घराने की लड़की जान पड़ती हो। क्योंकि नीचों के घर ऐसा रूप नहीं होता!"

धूल पड़े रूप पर! यह रूप रूप सुन कर मैं और भी जल भुन गई थी, किन्तु वे ब्राह्मण वृद्ध थे, इस लिये इस के संग गई।

मैं ने उस रात्रि को ब्राह्मण के घर दो दिन पीछे कुछ विश्राम किया। वे दयालु बूढ़े ब्राह्मण पुरोहिताई का काम करते थे। उन्होंने मेरे वस्त्र की दशा देख विस्मित हो कर पूछा, “बेटी! तुम्हारे कपड़े की ऐसी दशा क्यों हो रही है? क्या किसी ने तुम्हारे कपड़े छीन लिये हैं? “मैं ने कहा, “जी हाँ" वे यजमानों के यहां से बहुतेरे वस्त्र पाया करते थे―उन्हीं में से ब्राह्मदेवता ने एक जोड़ कम पगह की चौडे किनारे की साड़ी तुझे पहिरने के लिये दी। शंख की चूरियां भी उन के यहां थी, उन्हें भी मांग कर मैंं ने पहिर लिया!

बड़े कष्ट से मैं ने इन कामों को पूरा किया। शरीर गिरा पड़ता था। ब्राह्मणी ने थोड़ा भात दिया, जिसे मैं ने खाया। उन्हों ने एक मादुर को बहाई दी, उसे बिछा कर सो रही। किन्तु इतने कष्ट पर भी मुझे नींद न आई। मैं जो जन्म भर के