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पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११५

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द्वितीय सर्ग (६) "जाती है, कौशल्या जीजी बाट जोहती होगी मेरी, सभा भवन मे जाने मे हो नरपति के न कही कुछ देरी , दक्षिण जन-पद के शासक का निर्वाचन-निश्चय करना है, किसी चतुर की नव-नियुक्ति से रिक्त स्थान आज भरना है ।" (६०) यो कह उठी सुमित्रा, बोले तब शत्रुघ्न शिरोमणि हँस कर, "मा, मुझको नियुक्त करना, मै ख्ब करूंगा शासन कस कर, "लल्ला, पहले लो तुम मुझसे ले लो अभी कला की शिक्षा, फिर अपनी झोली मे, मा से लेना शासक-पद की भिक्षा।" (६१) यो उपहास वचन भाभी के सुनकर श्री शत्रुघ्न लजाए, फिर वोले "भाभी, भैया के ये क्या तुम ने साज सजाए तनिक चित्रपट देखो अपना, देखो और मुझे समझानो, क्या प्रेरणा हुई थी मन मे, उसकी गुत्थी तो सुलझानो।" (६२) "रिपुसूदन, मै क्या समझाऊ, एक हूक उठती है मन मे, हिय मे एक बाण लगता है, स्पन्दन होता है कण-कण मे, तन की सुध कुछ-कुछ सो जाती, ये आखे अँपने लगती है, तब लोचन तल पे सपने की क्रीडाए कॅपने लगती है। (६३) बज उठती है हृदय-बाँसुरी, एक मद-अलसता छा जाती, अति सुदूर, आदर्श चिरन्तन सुन्दर की झाँकी आ जाती अस्वाभाविक और प्राकृतिक, ये सब गिर पडते है बन्धन, अपने आप हृदय की कोकिल कर उठती है अश्रुत क्रन्दन । ?