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पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०२

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कम्मिला १४१ यो कह सिहासन पर बैठे, नृवर विभीषण लकापति, और उठे अपने आसन से वानरपति, किष्किन्धापति, वे बोले, "लकेश्वर, मै हूँ- शुद्ध अनागर, वनवासी, है सौन्दर्यहीन मम भाषा, निपट असस्कृत, अबला-सी, यदि श्री राम गुणोपचार का, कर न सकू मै सफल प्रयत्न, तो न भाव दोषी है मेरे, अपितु शब्द है निपट अऋत्स्न । १४२ किया राम ने जो वह, वे ही- कर सकते थे, इस जग मे, भूमि- भार - अपहरण - भाव है मण्डित उनके प्रति- डग मे, फूल-फूल उठती है उनके चरण- परस से वसुन्धरा, उनकी पद- रज से रजित है सारी प्रकृति परा-अपरा, यह अज्ञान तिमिर-मोचन तो, है दशरथ - नन्दन की टेव राम नाम भर से होता है दग-उन्मीलन तो स्वयमेव । ५८८