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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१०

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और इसके आगे का सारा कार्य उस मिलन को सफलीभूत करने के हेतु। इस मुख्य कथानक की शोभा को द्विगुण करने के निमित्त शैव और वैष्णवों के मतमतान्तर के बाद विवाद का उपकथानक जोड़ दिया गया है।

इस नाटक से उपदेश जोमिलता है वह मार्ले के शब्दों मे इस प्रकार प्रकट किया जा सकता हैं :––"Love God, Love your neighbour, Do your work." अर्थात्––परमात्मा से प्रेम करो, अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपना कर्तव्य पालन करो। उपदेश कथानक में गूंथा हुआ है, इसलिये किसी स्थान पर दोनों का पृथक करके दिखाना सम्भव नहीं है।

नाटक शिव और पार्वती के सम्वाद से प्रारम्भ होता है। नाटक के शिवजी दयालु और भोलानाथ हैं। वे वाणासुर का कठोर तप देखकर उसको अजेय शक्ति प्रदान करदेते हैं, यद्यपि वे जानते हैं कि इससे संसार को कितनी हानि पहुंचेगी। वाणासुर और बलराम के युद्ध के समय शिवजी उस झगड़े को शान्त करते हैं और वाणपुत्री ऊषा और श्री कृष्ण के पौत्र राजकुमार अनिरुद्ध का विवाह कराते हैं। अंगरेजी के नाटककार इसे Deus Ex Machina कहते हैं। वे इसे एक प्रकार का दोष मानते हैं कि किसी कार्य को साधने के लिए सहसा किसी देवता अथवा अन्य अलौकिक शक्ति का आश्रय लिया जाय, परन्तु हिन्दी नाटकीय संसार इसमें कोई त्रुटि नहींदेखता।

श्रीमती पार्वतीजी का चरित्र एक देवी का चरित्र है। दया के वशमें होकर वे वाणासुर को एक कन्या का प्रसाद देती हैं।

इस नाटक के श्रीकृष्ण गीता के श्रीकृष्ण का पूर्वपरिचय दे रहे हैं। वे सुख दुःख में समान हैं। वे स्त्री, पुत्र, पौत्र और बन्धु बान्धवों के सारे कार्यों को उदासीन भाव से देख रहे हैं। वे वृद्ध हैं। उनमें योगियों की शान्ति है। वे शत्रु की प्रजा के हितचिन्तक हैं, और नहीं चाहते कि वाणासुर की धनहीन प्रजा, दरिद्री कृषक, और लाभदायक संस्थायें योद्धाओं के क्रोध का आखेट बनें। वे युद्ध में कूट नीति के पक्षपाती नहीं हैं, बल्कि वे उद्धव जी को नियमानुकूल लड़ने का उपदेश करते हैं। वे