सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८६ )

हुए, सहस्रमुनाओं का पल रक्खे हुए है । वह शैव होने के कारण अपनी वैष्णव प्रजा पर बड़ा अत्याचार कर रहा है। वैष्णव,वों के बच्चों को नये नये कानून बनाकर उसके यहाँ शैव किया जा रहा है, उनके कंठी-तिलक को नष्टकर तरह तरह से कष्ट दिया जारहा है । बेचारी वैष्णव स्त्रियों को चोरी ओर बरजोरी से शैव सम्प्रदाय में घसीटा जारहा है, वैष्णवों के विरुद्ध शैव धर्म का डका पीटा जारहा है। स्त्री जाति का ऐसा अपमान आज तक कहीं देखने और सुनने में नहीं पाया।

बजरामः--ओह, इतना अत्याचार ? इतना बलात्कार ? तब तो अवश्य उस मामी का मद हरण करना चाहिए । धर्म की रक्षा के लिये अधर्मी का सिर कुचलना चाहिए।

नारद:--इसीलिए तो मैंने चित्रलेखा को सहायता दी ! यदि मै उसको अनिरुद्ध की माता के वेश में यह कार्य सम्पादन करने की त्ति का बताता तो सुदर्शन को इस स्थान से कैसे हटाता ?

उग्र--पन्य नारदजी, आपको भी धन्य है, और आपकी कला को भी धन्य है !

सुद०--श्रमती सुदर्शन इल्काम से बरी होगया ?

उग्र०--तुम मुलजिम ही कप थे ? ( नारह खे) अच्छा खो अनिरुद्ध इस समय वहाँ किस हाल में है ?

नारद--कारागार के माल में है !

बलराम--(चौककर) हैं ! कारागार में ! हमारा पौत्र कारा- गार में ! (उपप्लेम से) महाराज, अब नहीं रहाजाता है। खून खौला जाता है। एकदम चलो, पौत्र अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए तैयार होजाओ--