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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/९६

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माधो०--वाह, सुधार कैसे नहीं किया ? थोड़ी देर पहले आप आते तो मालूम होता कि मैं अब रामायणजी का भाधा सल्लोक पुरानी रीति पर कहता हूं और आधी नई रीति पर ।

कृष्ण०--क्या खाक नई रीति पर कहते हो ! मैने छिपे रे सब कुछ सुनलिया है। मेरा कहना यह है कि बाप रामायण के ही श्लोक कहिए और उनका शुद्ध अर्थ करिए । साथ ही, अपन्न चरित्र को भी बनाइये, विद्या की अग्नि में अविद्या के कूड़े को जवाइए । लध पाप वैशाक कहाने के अधिकारी और जाति के सचे पुजारी होंगे। क्योंकि-

पहले अपने आपको, जो निर्मल करलेय ।
बह ही इस संसार को, सच्ची शिक्षा दय ।।

माधो०--धन्य महाराज,आपके उपदेश से आज मेरे नेत्र खुजगए और अभ्यंतर के समस्त विकार धुलगए । अब मैं अपना और भी सुधार करूंगा। रामायणजी में कहा है कि--

कोऽपि दोषःसमर्थानां अस्मिल्लोके न विद्यते।।
त्वचाह वै समर्थोस्तः भाचरेव यथारुचिम् ॥

अर्थात् इस संसार में सामर्थ्यवान् जो चाहे सो करे, उसे दोष नहीं लगता । सो हम और आप भी चाहे जो कुछ करें क्योंकि हम और आप सामर्थ्यवान हैं।

कृष्ण०--खेद, अब भी तो आप अपने अण्ड बण्ड श्लोको का ऊटपटाँग अर्थ धांगेही जाते हैं। अच्छा जाइए और मत्र अम्बाड़े को साथ लेकर मेरे पास माइए । मै श्राप से वैष्ण धर्म का प्रचार अपने निरीक्षण में कराऊंगा।

[महन्त माधोदासका सबको साथ लेकर अखाड़े की ओर चले जाना और कृष्णदास का अकेला रह जाय ।