सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८१ )

उग्र०--परन्तु उद्धवजी, राजा को खुद कभी सुख और चैन नहीं होता है। ताग और तख्त ये दोनों चीजें बेचैनी को बुनियाद पर रक्खी हुई हैं।

उद्धव--परन्तु कब ? जबकि अधर्म उस राज्य का लक्ष्य हो, अन्याय उस राज्य का मन्त्र हो । वाल्मीकीय रामायण में हमने पढ़ा है कि रघुकुल के राजाओ में सर्वदा शांति रही है । परन्तु रावण मे सदा अशान्ति रही है :-

उसे डर था प्रजा सर पै न चढ़ जाए कहीं तनके ।
मेरे कानून मेरे हैं, प्रजा के हैं नही मनके ॥

उग्र०--हाँ, यह ठीक है । रावण को अपने बलपर बड़ा अभिमान था। अपने अभिमान ही मे वह छोटे छोटे निर्दोष राजाओं को खून चूसा करता था । प्रजा के दीन हीन परन्तु धर्म के सच्चे पुजारियों को अत्याचार के बेलन से पीसा करता था ।

उद्धवः--इसीलिए तो उसका नाश हुआ और धर्मवीर रघुकुल के सूर्य का प्रकाश हुआ:-

आपकी गद्दी तो है महाराज गद्दी धर्म की ।
इस मुकुट की सर्वदा रक्षक है शक्ती धर्म की ।।

[सुबुद्धि का प्रवेश]
 

सुबुद्धिः--राजराजेन्द्र, बड़ा गजब होगया ! बड़ा उत्पात्र होगया!

उग्र०:--[घबराकर ] क्या वज्रपात होगया ?

सुबुद्धिः--राजकुमार अनिरुद्ध अपने महल से ग़ायब हैं। वही नहीं उनका पलंग तक ग़ायब है ।