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पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/५८

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अब नहीं। अब तो राजा और पिता दोनों ही के यहाँ का आना-जाना बन्द हो गया।

साधु: सो क्यों?

तारा: क्योंकि दोनों मेरी जान के ग्राहक हो गए!

साधु: खैर, दोनों जगह का आना-जाना बन्द होने का सबब पीछे सुनूंगा, पहिले बता कि तेरा पिता सुजन सिंह 'कटोरा-भर खून' के नाम से क्यों डरता और काँपता है? इसमें क्या भेद है?

तारा: (काँप कर) ओफ! याद करके कलेजा काँपता है, वह बड़ा ही भयानक दृश्य था! खैर, मैं कहूँगी मगर यह बड़ी ही नाजुक बात है।

साधु: मैं कसम खाकर कह चका कि तू मुझसे सिवाय भलाई के बुराई की उम्मीद कभी मत रख, फिर क्या डरती है?

तारा: मैं कहूँगी और जरूर कहूँगी, मेरा दिल गवाही देता है कि आप मेरे खैरखाह हैं, न-मालूम क्यों मुझे आपके चरणों में मुहब्बत होती है।

तारा के इस कहने से साधु की आँखें डबडबा आईं, उसने धूनी में से थोड़ी-सी राख उठा कर अपनी आँखों पर मली और इस तर्कीब से आँसू सुखा कर बोला:

साधु: खैर, तारा, यह तो ईश्वर की कृपा है, हाँ तू वह भेद कह, मेरा जी उसे सुनने के लिए बेचैन है।

तारा: मगर इसके साथ मुझे अपना भी बहुत-सा किस्सा कहना पड़ेगा?

साधु: कोई हर्ज नहीं, मैं सब-कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ।

तारा: अच्छा तो मैं कहती हूँ, सुनिए। मैं लड़कपन से राजा के यहाँ आती जाती थी और कई-कई दिनों तक वहाँ रहा करती थी। महल में एक और लड़की भी रहा करती जिसका नाम अहिल्या था। उसकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा थी मगर तो भी मैं उससे मुहब्बत करती थी और वह भी मुझे दिल से चाहती और प्यार करती थी। मुझे यह न मालूम हुआ कि अहिल्या के माता-पिता कौन और कहाँ हैं और उसका कोई रिश्तेदार है या नहीं। मैंने कई दफे अहिल्या से पूछा कि तेरे माता-पिता कौन और कहाँ हैं मगर इसके जवाब में उसने केवल आँसू गिरा दिया और मुँह से कुछ न कहा। मेरी और बीरसिंह की जान-पहचान लड़कपन ही से थी। वह महल में बराबर राजा के साथ आया करते थे, अक्सर अहिल्या