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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/११६

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चौथा खण्ड
 

कपालकुण्डला बहुत देर तक कुछ न बोली। बहुत देर बाद बोली “स्वामीको त्याग कर कहाँ जाउँगी?”

लु०—विदेशमें बहुत दूर। तुम्हें अट्टालिका दूँगी, धन दूँगी, दास-दासी दूँगी, रानीकी तरह रहोगी।

कपालकुण्डला फिर चिन्तामें पड़ गई। पृथ्वीमें उसने सब देखा, लेकिन कोई दिखाई नहीं दिया। अन्तःकरणमें देखा नवकुमार कहीं भी न थे, तो क्यों लुत्फुन्निसाकी राहका काँटा बनूँ? फिर बोली—“तुमने मेरी क्या सहायता की है, यह अभी समझ नहीं पाती हूँ। अट्टालिका, धन, दास, दासी नहीं चाहती। मैं तुम्हारे सुखमें क्यों बाधा दूँ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो—कलसे इस विध्नकारिणीकी कोई खबर न पाओगी। मैं वनचरी थी, वनचरी हो जाऊँगी।”

लुत्फुन्निसा आश्चर्यमें आई। उसे इतनी जल्दी स्वीकार कर लेनेकी आशा न की थी। मोहित होकर उसने कहा—“बहन! तुमने मुझे जीवनदान दिया है। लेकिन मैं तुम्हें अनाथा होकर जाने न दूँगी। कल सबेरे मैं तुम्हारे साथ एक चतुर दासी भेजूँगी। उसके साथ जाना। वर्द्धमानमें एक बहुत बड़ी प्रधान महिला मेरी मित्र हैं, वह तुम्हारी सारी इच्छा पूरी कर देंगी।”

कपालकुण्डला और लुत्फुन्निसा इस प्रकार निश्चिन्त हो बातें कर रही थीं कि सामने कोई विध्न ही नहीं। उसके स्थानसे जो वन्यपथ आया था, उसपर खड़े होकर कापालिक और नवकुमार उनके प्रति कराल दृष्टिसे देख रहे थे, उसे उन्होंने देखा ही नहीं।

नवकुमार और कापालिक केवल इन्हें देख रहे थे, दुर्भाग्यवश इनकी बातें सुननेकी परिधि से वे दूर थे। कौन बता सकता है कि यदि मनुष्यकी श्रवणेन्द्रिय और आँखें मनुष्य के अन्दर तकका हाल देख-सुन लेतीं तो मनुष्यका दुःख-वेग कम होता या बढ़ता। लोग कहते हैं, संसारकी रचना अपूर्व और कौशलमय है।