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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०३

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निहकर्मो पतिब्रता का अंग

नैनां अंतरि आव तूं,ज्यूं हौं नैन झंपेउं ।
नां हौं देखौं और कूं,नां तुझ देखन देउं ।। २ ॥
मेरा मुझ में कुछ नहीं,जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझकों सौंपतां,क्या लागै मेरा ॥ ३ ॥
कबीर रेख स्यंदूर की,काजल दिया न जाइ।
नैं नूं रमइया रमि रह्या,दूजा कहां समाइ ॥ ४ ॥
कबीर सीप समंद की,रटै पियास पियास ।
समदहि तिणका वरि गिणै,स्वाँति बूंद की आस ॥ ५ ॥
कबीर सुख कौं जाइ था,आगैं आया दुख ।
जाहि सुख घरि आपणे,हम जाणों अरू दुख ॥ ६ ॥
दो जग तो हम अंगिया यहु डर नाहीं मुझ ।
भिस्त न मेरे चाहिये,बाझ पियारं तुझ ॥ ७ ॥
जे वो एकै जांथियां,तौ जांण्यां सब जांण ।
जे ओ एक न जांणियां,तो सबहीं जांण अजाण ॥ ८॥
कबीर एक न जांणियां,तौ बहु जाण्यां क्या होइ।
एक तैं मब होत है,सब एक न होइ ॥ ६ ॥
जब लग भगति सकामता,तब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूं मिलैं,निहकांमी निज देव ॥१०॥
आसा एक जु रांम की,दूजी आस निरास ।
पांणी मांहैं घर करैं,ते भी मरैं पियास ॥ ११ ॥

(७) ख-भिसति ।
(११) इसके आगे ख. में ये दोहे हैं-
आसा एक ज राम की, दूजी आस निवारि ।
आसा फिरि फिरि मारसी,ज्यूं चौपड़ि की सारि ॥११॥
आसा एक ज राम की,जुग जुग पुरवै आस ।
जै पाउल क्यों रे करै,बसैहिं जु चंदन पास ॥१२॥