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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०५

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२१
चितवणी कौ अंग

कबीर थोड़ा जीवणा, माड़े बहुत मॅडाण ।
सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान ।। ५ ॥
इक दिन ऐसा होइगा, सब सं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होई ॥ ६ ॥
कबीर पटण कारिवां, पंव चोर दस द्वार ।
जम राणों गढ भेलिसी, सुमिरि लै करतार ॥ ७ ॥
कबीर कहा गरवियो, इस जायन की प्रास ।
केसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास ॥८॥
कबीर कहा गरबियो, देही देखि सुरंग ।
बोछड़ियाँ मिलिबी नहीं, ज्यूं कांचली भुवंग ॥ ६ ॥
कबीर कहा गरबिया, ऊँचे देखि प्रवास ।
काल्हि परसु बैं लेटणां, ऊपरि जामैं घास ॥ १० ॥
कबीर कहा गरबिया, चाम पलेटे हड ।
हैंवर ऊपरि छत्र सिरि, ते भी देवा खड ।। ११ ॥
कबीर कहा गरबिया. काल गहै कर केस ।
नां जाणों कहां मारिसी, के घरि के परदेस ।। १२ ।।
यहु ऐसा संमार है, जैमा सैंबल फूल ।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठ रंगि न भूलि ॥ १३ ।।
(६) ख० में इसके आगे यह दोहा है-
ऊजड़ खेड़े ठीकी, घड़ि घड़ि गए कुंभार ।
रावण सरीखे चलि गए, लंका के सिकदार ॥ ७॥
(७) ख-जम...भेलसी, बोल गले गोपाल ।
(२) ख-कत मारसी।
।१३)ख० में इसके भागे ये दोहे हैं-
मौति बिसारी बावरे, अचिरज कीया कौन ।
तन माटी मैं मिलि गया, ज्यूं माटे मैं लूण ॥१॥