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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०७

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२३
चितवणी कौ अंग

कबीर जे धंधै तो धूलि, बिन धधै धूंलै नहीं।
ते नर बिनठे मूलि, जिनि धंधै मैं ध्याया नहीं ॥ २१॥
कबीर सुपनैं रैनि के, ऊघड़ि आये नैंन।
जीव पड़या बहु लुटि मैं, जागै तौ लैंण न दै ण ।। २२ ॥
कबीर सुपनैं रैंनि के, पारस जीय मैं छेक ।
जे सोऊ तौ दोइ जणां, जे जागूं तो एक ॥ २३ ॥
कबीर इस संसार मैं, घणौ मनिष मतिहींण ।
रान नाम जांणौं नहीं, आए टापा दीन ॥ २४ ॥
कहा कीयौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भए न उत के, चाले मूल गँवाइ ॥ २५ ॥
आया प्रणप्राया भया, जे बहुरता संसार ।
पड़या भुलांवां गाफिलां, गये कुबुधी हारि ॥ २६ ॥
कबीर हरि की भगति बिन, ध्रिग जीमण संसार ।
धूंवाँ केरा धौलहर, जात न लागै बार ।। २७ ॥
जिहि हरि की चोरी करी, गये राम गुण भूलि ।
ते बिधना बागुल रचे, रहे अरध मुखि झूलि ।। २८ ।।
माटी मलणि कुँभार की, घणीं सहै सिरि लात ।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अब की घात ।। २९ ॥
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूं पाली देह ।
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख षेह ॥ ३०॥

(२२) ख -- बहु भूलि मैं।
(२३) इसके आगे ख. में यह दोहा है --
कबीर इहै चितावणी, जिन संसारी जाइ।
जे पहली सुख भोगिया, तिनका गुड ले खाइ ॥ ३० ॥
(२४) ख. में इसके आगे यह दोहा है --
पीपल रूनौ फूल बिन, फल बिन रूनी गाइ ।
एकां एकां माणसां, टापा दीन्हा आइ ।। ३२॥