सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४.
कबीर-ग्रंथावली

 अब घटि प्रगट भये रांम राई,
सोधि सरीर कनक की नांईं ॥ टेक ।।
 कनक कसौटी जैसे कसि लेइ सुनारा,
सोधि सरीर भयो तन सारा ॥
 उपजत उपजत बहुत उपाई,
मन थिर भयौ तबै थिति पाई ॥
 बाहरि षोजत जनम गंवाया,
उनमनीं ध्यांन घट भीतरि पाया ।
 बिन परचै तन काँच कथीरा,
परचै कंचन भया कबीरा ।। १७ ।।

   हिंडोलनां तहां झूलै प्रातम रांम ।
   प्रेम भगति हिंडालना,सब संतनि कौ विश्रांम ॥ टेक
 चंद सूर दोइ खंभवा,बंक नालि की डोरि ।
 भूलैं पंच पियारियां,तहां झूलै जीय मोर ।।
 द्वादस गम के अंतरा,तहां अमृत कौ ग्रास ।
 जिनि यहु अमृत चाषिया,सो ठाकुर हंम दास ।।
 सहज सुंनि कौ नेहरौ,गगन मंडल सिरिमौर ।
 दोऊ कुल हम आगरी,जौ हंम झूलैं हिंडोल ।।
 अरध उरध की गंगा जमुनां,मूल कवल कौ घाट ।
 षट चक्र की गागरी,त्रिवेणी संगम बाट ।
 माद व्यंद की नावरी,रांम नांम कनिहार ।
 कहै कबीर गुंण गाइ ले,गुर गंमि उतरौ पार ॥ १८ ॥