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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२५३

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पदावली

बस्ती मैं थै मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा ।
घर कौं खरच खबरि नहीं भेजी, आप न कीया फेरा ॥
हस्ती घोड़ा बैल बांहणीं, संग्रह किया घणेरा ।
भीतरि बीबी हरम महल मैं, साल मिंया का डेरा ॥
बाजी की बाजीगर जांनैं', कै बाजीगर का चेरा।
चेरा कबहूं उझकि न देखै, चेरा अधिक चितेरा ॥
नौ मन सूत उरझि नहीं सुरझै, जनमि जनमि उरझेरा ।
कहै कबीर एक रांम भजहु रे, बहुरि न हैगा फेरा ॥ २३८ ॥

  हावड़ि धावड़ि जनम गवावै,
कबहुं न रांम चरन चित लावै ॥ टेक ॥
जहां जहां दांम तहां मन धावै, अंगुरी गिनता नि बिहावै ।
तृया का बदन देखि सुख पावै, साध की संगति कवहूं न आवै ॥
सरग के पंथि जात सब लोई, सिर धरि पोट न पहुंच्या कोई ॥
कहै कबीर हरि कहा उबारै, अपणैं पाव आप जौ मारै ॥२३६॥

  प्रांणी काहे कै लोभ लागि, रतन जनम खोयौ ।
  बहुरि हीरा हाथि न आवै, रांम बिनां रोयौ । टेक ॥
जल बूंद थैं ज्यनि प्यंड बांध्या, अगिन कुंड रहाया ।
दस मास माता उदरि राख्या, बहुरि लागी माया ॥
एक पल जीवन की प्राश नांहीं, जम निहारै सासा ।
बाजीगर संसार कबीरा, जांनि ढारौ पासा ॥ २४० ॥

  फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ।
  जब दस मास उरध मुखि होते, सो दिन काहे भूल्यौ ॥ टेक ॥
जौ जारै तौ होइ भसम तन, रहत कृम है जाई ।
कांचै कुंभ उद्यक भरि राख्यौ, तिनकी कौन बडाई ॥