सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७१
पदावली

जाहि जाती नांव न लीया,फिरि पछितावैगौ रे जीया ॥टेक।
धंधा करत चरन कर घाटे,आव घटी तन खींना ।
विषै बिकार बहुत रुचि मांनी,माया मोह चित दींन्हां ॥
जांगि जांगि नर काहे सोवै,सोइ सोइ कब जागैगा।
जब घर भीतरि चोर पड़ैंगे,तब अंचलि किस कै लागैगा ।।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ,करि ल्यौ जे कछु करणां ।
लख चौरासी जोनि फिरौगे,बिनां रांम की सरनां ॥ २४४ ।।

  माया मोहि मोहि हित कीन्हां,
ताथैं मेगै ग्यांन ध्यांन हरि लीन्हां ।। टेक ॥
संसार ऐसा सुपिन जैसा,जीव न सुपिन समांन ।
सांच करि नरि गांठि बांध्यौ,छाडि परम निधांन ।।
नैन नेह पतंग हुलसै,पसू न पेखै अागि।।
काल पासि जु मुगध वांध्या,कलंक कांमिनीं लागि ।।
करि बिचार बिकार परहरि,तिरण तारण सोइ ।
कहै कबीर रघुनाथ भजि नर,दूजा नांहीं कोइ ॥ २४५ ॥

  ऐसा तेरा झूठा मीठा लागा,ताथैं साचे सूं मन भागा ।।टेक।।
झूठे के घरि झूठा आया,झूठा खांन पकाया ।
झूठी सहन क झूठा बाह्या,झुठे झूठा खाया ॥
झूठा ऊठण झूठा बैठण,झूठी सबै सगाई।
झूठे के घरि झूठा राता,साचे को न पत्याई ।।
कहै कबीर अलह का पंगुरा,साचे सूं मन लावौ।
झूठे केरी संगति त्यागौ,मन बंछित फल पावौ ॥ २४६ ॥

( २४४ )ख०-धंधा करत करत कर थाके