करम का बांध्या जीयरा, अह निसि प्रावै जाइ ।
मनसा देही पाइ करि, हरि बिसरै तौ फिर पी, पछिताइ ।
तौ करि त्राहि चेति जा चंधा, तजि परकीरति भजि चरन गोब्यंदा॥
उदर कूप तजा प्रभ वासा, रे जीव राम नाम अभ्यासा ॥
जगि जीवन जैसें लहरि तरंगा, खिन सुख कू भूलसि बहु संगा ॥
भगति को हीन जीवन कछ नाही, उतपति परलै बहुरि समाहीं।।
भगति हीन अस जीवना, जन्म मरन बहु काल ।
पाश्रम अनेक करसि रेजियरा, राम बिना कोइ न करै प्रतिपाल।।
सोई उपाव करि यहु दुख जाई, ए सब परहरिं विसै सगाई ।।
माया मोह जरै जग प्रागी, ता संगि जरसि कवन रस लागी ।।
त्राहि त्राहि करि हरी पुकारा, साध संगति मिलि करहु विचारा॥
रे रे जीवन नहीं बिश्रांमां, सब दुख खंडन राम को नामां ।।
राम नाम संसार मैं सारा, राम नाम भी तारनहारा ।।
सुम्रित बेद सबै सुनं, नहीं प्रावै कृत काज ।
नहीं जैसैं कुडिल वनित मुख, मुख सोभित बिन राज ॥
अब गहि राम नाम अबिनासी, हरि तजि जिनि कतहूं के.जासी।।
जहां जाइ तहां तहां पतंगा,अब जिनि जरसि समझि बिष संगा।
चोखा राम नाम मनि लीन्हा, भिंगी कीट भ्यन नहीं कीन्हां ।।
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरबे का करहु बिचारा ।।
मनि भावै अति लहरि बिकारा, नहीं गमि सूझ वार न पारा ।
भौसागर अथाह जल, तामै बोहिथ राम अधार।
कहै कबीर हम हरि सरन, तब गोपद खुर विस्तार ।। २ ।।
[बड़ी अष्टपदी रमैणी]
एक विनांनी रच्या बिनान, सद अयान जो आप जान ।।
सत रज तम थें कीन्हीं माया, चारि खांनि बिस्तार उपाया ।
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कबीर-ग्रंथावली