सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(४०)


जन कौं काम क्रोध व्यापै नहीं, त्रिष्णा न जरावै । प्रफुलित आनंद मैं, गोव्यद गुण गावै ॥ माया से बचने का एक उपाय जो भक्तों को बताया गया है, वह संसार से विमुख रहना है। जैसे उलटा घड़ा पानी में नहीं डूबता परंतु सीधा घड़ा भरकर डूब जाता है, वैसे ही संसार के सम्मुख होने से मनुष्य माया में डूब जाता है, परंतु संसार से विमुख होकर रहने से माया का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता- औंधा घड़ा न जल में डूबे, सूधा सूभर भरिया। जाळ यह जग घिन करि चाले, ता प्रसादि निस्तरिया ।। माया का दूसरा नाम अज्ञान है। दर्पण पर जिस प्रकार काई लग जाती है, उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञान का प्रावरण पड़ जाता है जिससे आत्मा में परमात्मा के दर्शन अर्थात् आत्मज्ञान दुर्लभ हो जाता है अतएव आत्मा रूपी दर्पण को निर्मल रखना चाहिए- .. जौ दरसन देख्या चाहिए, तौ दरपन मंजत रहिए । जब दरसन लागै काई, तब दरसन किया न जाई ॥ दरपन का यहो माँजना हरिभक्ति करना है। भक्ति ही से मायाकृत अज्ञान दूर होता है और ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अपने पराए का भेद मिटता है- उचित चेति च्यंति लै ताहीं । जांच्यतत श्रापा पर नाहीं ॥ हरि हिरदै एक ग्यान उपाया। ताथै छूटि गई सब माया ॥ इस पद में 'च्यंति' शब्द विचारणीय है क्योंकि यह कबीर की भक्ति की विशेषता प्रकट करता है। यह कहना अधिक उचित होगा कि शानियों की ब्रह्म-जिज्ञासा और वैष्णवों की सगुण भक्ति की विशेष विशेष बात को लेकर कबीर ने अपनी निर्गुण भक्ति का भवन खड़ा किया अथवा वैष्णवों के तात्त्विक सिद्धांतों और व्यावहारिक भक्ति के मिश्रण से कबीर की भक्ति का उद्भव हुआ है। सिद्धांत और व्यवहार में, कथनी और करनी में भेद रखना कबीर के खभाव