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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१३५

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टालस्टाय की एक कहानी याद आई, जिसमें एक पुरुष अपनी प्रेमिका को लेकर भाग जाता है; पर उसका कितना भीषण अन्त होता है। अमर खुद किसी के विषय में ऐसी खबर सुनता, तो उससे घृणा करता। मांस और रक्त से ढका हुआ कंकाल कितना सुन्दर होता है। रक्त और मांस का आवरण हट जाने पर वही कंकाल कितना भंयकर हो जाता है। ऐसी अफ़वाहें सुन्दर और सरस को मिटाकर वीभत्स को मूर्तिमान कर देती हैं। नहीं, अमर अब घर नहीं जा सकता।

अकस्मात्, बच्चे की याद आ गयी। उसके जीवन के अन्धकार में वही एक प्रकाश था। उसका मन उसी प्रकाश की ओर लपका। बच्चे की मोहिनी मूर्ति सामने आकर खड़ी हो गयी।

किसी ने पुकारा--अमरकान्त, यहाँ कैसे खड़े हो?

अमर ने पीछे फिर कर देखा तो सलीम। बोला--तुम किधर से ?

'जरा चीक की तरफ गया था। यहाँ कैसे खड़े हो। शायद माशूक से मिलने जा रहे हो।'

'वहीं से आ रहा हूँ यार, आज तो ग़जब हो गया। वह शैतान की खाला बुढ़िया आ गयी। उसने ऐसी-ऐसी सलवातें सुनाई कि बस कुछ न पूछो।'

दोनों साथ-साथ चलने लगे। अमर ने सारी कथा कह सुनाई।

सलीम ने पूछा--तो अब घर जाओगे ही नहीं ! यह हिमाकत है। बुढ़िया को बकने दो। हम सब तुम्हारी पाकदामनी की गवाही देंगे। मगर यार हो तुम अहमक़। और क्या कहूँ। बिच्छू का मन्त्र न जाने, साँप के मुंह में उँगली डाले। वही हाल तुम्हारा है। कहता था, उधर ज्यादा न आओ-जाओ। आखिर हुई वही बात। खैरियत हुई कि बुढ़िया ने मुहल्लेवालों को नहीं बुलाया, नहीं खून हो जाता।

अमर ने दार्शनिक भाव से कहा--खैर, जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। अब तो यही जी चाहता है कि सारी दुनिया से अलग किसी गोशे में पड़ा रहूँ और कुछ खेती-बारी करके गुज़र करूँ। देख ली दुनिया, जी तंग आ गया।

'तो आखिर कहाँ जाओगे?'

'कह नहीं सकता। जिधर तक़दीर ले जाय।'

'मैं चलकर बुढ़िया को समझा दूं?'

कर्मभूमि १३१