सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

'चलो मैं पहुँचा देती हूँ। कहेगा क्या, क्या समझता है यहाँ धन्ना सेठ बसते हैं ? मैं तो कहती हूँ, देख लेना वह बाजरे की ही रोटियाँ खायेगा। गेहूँ की छुयेगा भी नहीं।'

दोनों पहुँची तो देखा अमरकान्त द्वार पर झाड़ू लगा रहा है। महीनों से झाड़ू न लगी थी। मालूम होता था, उलझे-बिखरे बालों पर कंघी कर दी गायी है।

सलोनी थाली लेकर जल्दी से भीतर चली गयी। मुन्नी ने कहा--अगर ऐसी मेहमानी करोगे, तो यहाँ से कभी न जाने पाओगे।

उसने अमर के पास जाकर उसके हाथ से झाड़ू छीन ली। अमर ने कूड़े को पैरों से एक जगह बटोरकर कहा--सफाई हो गयी, तो द्वार कैसा अच्छा लगने लगा।

'कल चले जाओगे, तो यह बातें याद आवेंगी। परदेशियों का क्या विश्वास? फिर इधर क्यों आओगे ?'

मुन्नी के मुख पर उदासी छा गयी।

'जब कभी इधर आना होगा, तो तुम्हारे दर्शन करने अवश्य आऊँगा। ऐसा सुन्दर गाँव मैंने नहीं देखा। नदी, पहाड़, जंगल, इसकी शोभा ही निराली है। जी चाहता है, यहीं रह जाऊँ और कहीं जाने का नाम न लूँ।'

मुन्नी ने उत्सुकता से कहा--तो यहीं रह क्यों नहीं जाते।

मगर फिर कुछ सोचकर बोली--तुम्हारे घर में और लोग भी तो होंगे, वह तुम्हें यहाँ क्यों रहने देंगे ?

'मेरे घर में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मेरे मरने-जीने की चिन्ता हो। मैं संसार में अकेला हूँ।'

मुन्नी आग्रह करके बोली--तो यहीं रह जाओ, कौन भाई हो तुम?

'यह तो मैं बिल्कुल भूल गया भाभी। जो बुलाकर प्रेम से एक रोटी खिला दे वही मेरा भाई है।'

'तो कल मुझे आ लेने देना। ऐसा न हो, चुपके से भाग जाओ।

अमरकान्त ने झोपड़ी में आकर देखा, तो बुढ़िया चूल्हा जला रही थी। गीली लकड़ी, आग न जलती थी। पोपले मुँह में फूँक भी न थी। अमर को

कर्मभूमि
१४५
 

१०