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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१५१

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लेकर गये थे। पण्डितजी ने नाम लिख लिया; पर हमें सबसे अलग बैठाते थे। सब लड़के हमें 'चमार-चमार' कह चिढ़ाते थे। दादा ने नाम कटा दिया।

अमर की इच्छा हुई, चौधरी से जाकर मिले। कोई स्वाभिमानी आदमी मालूम होता है। पूछा--तुम्हारे दादा क्या कर रहे हैं ?

बालक ने लालटेन से खेलते हुए कहा--बोतल लिये बैठे हैं। भुने चने धरे हैं। बस अभी बक-बक करेंगे, खूब चिल्लायेंगे, किसी को मारेंगे, किसी को गालियाँ देंगे। दिन-भर कुछ नहीं बोलते। जहाँ बोतल चढ़ायी, कि बक चले।

अमर ने इस वक्त उनसे मिलना उचित न समझा।

सलोनी ने पुकारा–-भैया, रोटी तैयार है, आओ गरम-गरम खा लो।

अमरकान्त ने हाथ मुँह धोया और अन्दर पहुँचा। पीतल की थाली में रोटियाँ थीं, पथरी में दही, पत्ते पर अचार, लोटे में पानी रखा हुआ था।

थाली पर बैठकर बोला--तुम भी क्यों नहीं खातीं?

'तुम खालो बेटा, मैं फिर खा लूँगी।'

'नहीं मैं यह न मानूँगा । मेरे साथ खाओ!'

'रसोई जूठी हो जायगी कि नहीं?'

'हो जाने दो। मैं ही तो खानेवाला हूँ ?'

'रसोई में भगवान रहते हैं। उसे जूठो न करना चाहिये।'

'तो मैं भी बैठा रहूँगा।'

'भाई, तू बड़ा खराब लड़का है।'

रसोई में दूसरी थाली कहाँ थी। सलोनी ने हथेली पर बाजरे की रोटियाँ ले लीं और रसोई के बाहर निकल आई। अमर ने बाजरे की रोटियाँ देख लीं। बोला--यह न होगा काकी? मुझे तो यह फुलके दे दिये, आप मजेदार रोटियाँ उड़ा रही हो।

'तू क्या खायेगा बाजरे की रोटियाँ बेटा? एक दिन के लिये आ पड़ा तो बाजरे की रोटियाँ खिलाऊँ ?'

मैं तो मेहमान नहीं हूँ। यही समझ लो, कि तुम्हारा कोई खोया हुआ बालक आ गया है।'

'पहले दिन उस लड़के की भी मेहमानी की जाती है। मैं तुम्हारी क्या

कर्मभूमि
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