सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


मुझसे जो कुछ होगा, सेवा-सत्कार करूँगी। तुम बटाई पर लेते हो, तो ले लो। जिसको कभी देखा न सुना, न जान न पहचान, उसे कैसे बटाई पर दे दूँ?

पयाग ने चौधरी की और तिरस्कार भाव से देखकर कहा--भर गया मन या अभी नहीं। कहते हो औरतें मूरख होती हैं। यह चाहें हमको तुमको खड़े-खड़े बेच लायें। सलोनी काकी मुँह की मीठी है।

सलोनी तिनक उठी--हाँ जी, तुम्हारे कहने से अपने पुरुखों की ज़मीन छोड़ दूं। मेरे ही पेट का लड़का, मुझी को चराने चला है !

काशी ने सलोनी का पक्ष लिया--ठीक तो कहती है, बे जाने-सुने आदमी को अपनी ज़मीन कैसे सौंप दे।

अमरकान्त को इस विवाद में दार्शनिक आनन्द आ रहा था। मुस्कराकर बोला--हाँ, दादी तुम ठीक कहती हो। परदेशी आदमी का क्या भरोसा ?

मुन्नी भी द्वार पर खड़ी यह बातें सुन रही थी। बोली--पगला गई हो क्या काकी? तुम्हारे खेत कोई सिर पर उठा ले जायगा ? फिर हम लोग तो हैं ही। जब तुम्हारे साथ कोई कपट करेगा, तो हम पूछेंगे नहीं ?

किसी भड़के हुए जानवर को बहुत से आदमी घेरने लगते हैं, तो वह और भी भड़क जाता है। सलोनी समझ रही थी, यह सब-के-सब मिलकर मुझे लुटवाना चाहते हैं। एक बार नहीं करके, फिर हाँ न की। वेग से चल खड़ी हुई।

पयाग बोला--चुड़ैल है चुड़ैल !

अमर ने खिसियाकर कहा--तुमने नाहक उससे कहा दादा ! मुझे क्या, यह गाँव न सही और गाँव सही।

मुन्नी का चेहरा फ़क हो गया।

गूदड़ बोले--नहीं भैया, कैसी बातें करते हो तुम! मेरे साझीदार बन कर रहो। महन्तजी से कहकर दो चार बीघे का और बन्दोबस्त करा दूँगा। तुम्हारी झोंपड़ी अलग बन जायगी। खाने-पीने की कोई बात नहीं। एक भला आदमी तो गाँव में हो जायगा ! नहीं कभी एक चपरासी गाँव में आ गया, तो सब की साँस तले-ऊपर होने लगती है।

आध घण्टे में सलोनी फिर लौटी और चौधरी से बोली--तुम्हीं मेरे खेत क्यों बटाई पर नहीं ले लेते।

कर्मभूमि
१५३