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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१७३

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'तुम्हारी बात न सुनेंगे, तो और किसकी सुनेंगे लाला?'

'और जो किसी ने न माना?'

'और जो मान गये? आओ कुछ-कुछ बद लो।'

'अच्छा क्या बदती हो?'

'मान जायँ, तो मुझे एक साड़ी अच्छी-सी ला देना।'

'और न माना, तो तुम मुझे क्या दोगी?'

'एक कौड़ी।'

इतनी देर में वह लोग और समीप आ गये। चौधरी सेनापति की भाँति आगे आगे लपके चले आते थे।

मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा--ला तो रहे हो, लेकिन लाला भागे जा रहे हैं।

गूदड़ ने कुतूहल से पूछा--क्यों? क्या हुआ है?

'यही गाय की बात है। कहते हैं, मैं तुम लोगों के हाथ का पानी न पिऊँगा।'

पयाग ने अकड़कर कहा--बकने दो। न पियेंगे हमारे हाथ का पानी, तो हम छोटे न हो जायेंगे।'

काशी बोला--आज बहुत दिन के बाद तो सिकार मिला। उसमें भी यह बाधा ?

गूदड़ ने समझौते के भाव से कहा--आखिर कहते क्या है?

मुन्नी झुँझलाकर बोली--अब उन्हीं से जाकर पूछो। जो चीज़ और किसी ऊँची जातवाले नहीं खाते, उसे हम क्यों खाँय, इसी से तो लोग नीच समझते हैं।

पयाग ने आवेश में कहा--तो हम कौन किसी बाम्हन-ठाकुर के घर बेटी ब्याहने जाते हैं। बाम्हनों की तरह किसी के द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाते? यह तो अपना-अपना रिवाज है।

मन्त्री ने डाँट बतायी--यह कोई अच्छी बात है, कि सब लोग हमें नीच समझें, जीभ के सवाद के लिए?

गाय वहीं रख दी गयी। दो-तीन आदमी गँड़ासे लेने दौड़े। अमर खड़ा देख रहा था कि मुन्नी मना कर रही है; पर कोई उसकी सुन नहीं रहा है।

कर्मभूमि
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