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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१८०

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मुन्नी ने क्षीण मुस्कान के साथ कहा--मुझे पूछते हो? मुझे क्या हुआ

'कुछ बात तो है! मुझसे छिपाती हो।'

'नहीं जी, कोई बात नहीं।'

एक मिनट के बाद उसने फिर कहा--तुमसे आज अपनी कथा कहूँ, सुनोगे?

'बड़े हर्ष से। मैं तो तुमसे कई बार कह चुका। तुमने सुनाई ही नहीं।'

'मैं तुमसे डरती हूँ। तुम मुझे नीच और जाने क्या-क्या समझने लगोगे।'

अमर ने मानो क्षुब्ध होकर कहा--अच्छी बात है, मत कहो। मैं तो जो कुछ हूँ वही रहूँगा, तुम्हारे बनाने से तो नहीं बन सकता।

मुन्नी ने हारकर कहा--तुम तो लाला जरा सी बात पर चिढ़ जाते हो, तभी स्त्री से तुम्हारी नहीं पटती। अच्छा लो, सुनो। जो जी में आये समझना--में जब काशी से चली, तो थोड़ी देर तक तो मुझे कुछ होश ही न रहा–कहाँ जाती हूं, क्यों जाती हूं, कहाँ से आती हूं। और मैं उसमें डूबने उतराने लगी। अब मालूम हुआ, क्या कुछ खोकर मैं चली जा रही हूं। ऐसा जान पड़ता था कि मेरा बालक मेरी गोद आने के लिए हुमक रहा है। ऐसा मोह मेरे मन में कभी न जागा था। मैं उसकी याद करने लगी। उसका हँसना और रोना, उसकी तोतली बातें, उसका लटपटाते हुए चलना, उसे चुप करने के लिए चन्दा मामा को दिखाना, सुलाने के लिए लोरियां सुनाना, एक-एक बात' याद आने लगी। मेरा वह छोटा-सा संसार कितना सुखमय था। उस रत्न को गोद में लेकर मैं कितनी निहाल हो जाती थी, मानो संसार की संपत्ति मेरे पैरों के नीचे है। उस सुख के बदले में स्वर्ग का सूख भी न लेती। जैसे मन की सारी अभिलाषाएँ उसी बालक में आकर जमा हो गयी हों। अपना टूटा-फूटा झोपड़ा, अपने मैले कुचैले कपड़े, अपना नंगा-बूचापन, कर्ज-दाम की चिंता, अपनी दरिद्रता, अपना दुर्भाग्य, ये सभी पैने काँटे जैसे फूल बन गये। अगर कोई कामना थी, तो यह कि मेरे लाल को कुछ न होने पाये। और आज उसी को छोड़कर मैं न जाने कहाँ चली जा रही थी। मेरा चित्त चंचल हो गया। मन की सारी स्मृतियाँ सामने दौड़नेवाले वृक्षों की तरह, जैसे मेरे साथ दौड़ी चली आ रही थीं। और उन्हीं के साथ

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कर्मभूमि