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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२२८

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होगी? फिर तो यहाँ रक्त और आँसुओं की नदियों के सिवा और कुछ न दिखाई देगा।

शांतिकुमार ने परास्त होकर कहा-में अपनी गलती को मानता हूँ सुखदा देवी! मैं तुम्हें न जानता था और इस भ्रम में था कि तुम्हारी ज्यादती है। मैं आज ही अमर को पत्र...

सुखदा ने फिर बात काटी-नहीं, मैं आपसे यह प्रेरणा करने नहीं आई हूँ, और न यह चाहती हूँ कि आप उनसे मेरी ओर से दया की भिक्षा माँगें। यदि वह मुझसे दूर भागना चाहते हैं, तो मैं उनको बाँधकर नहीं रखना चाहती। पुरुष को जो आजादी मिली है, वह उसे मुबारक रहे; वह अपना तन-मन गली-गली बेचता फिरे। मैं अपने बन्धन में प्रसन्न हूँ। और ईश्वर से यही विनती करती हूँ कि वह इस बन्धन में मुझे डाले रखे। मैं जलन या ईर्ष्या से विचलित हो जाऊँ, उस दिन के पहले वह मेरा अन्त कर दे। मुझे आपसे मिलकर आज जो तृप्ति हुई, उसका प्रमाण यही है कि मैं आपसे वह बातें कह गयी, जो मैंने अभी अपनी माता से भी नहीं कहीं। बीबी आपकी जितना बखान करती थीं, उससे ज्यादा सज्जनता आप में पायी मगर आपको मैं अकेला न रहने दूंगी। ईश्वर वह दिन लाये कि मैं इस घर में भाभी के दर्शन करूं।

जब दोनों रमणियाँ यहाँ से चलीं, डाक्टर साहब लाठी टेकते हुए फाटक तक उन्हें पहुँचाने आये और फिर कमरे में आकर लेटे, तो ऐसा जान पड़ा कि उनका यौवन जाग उठा है। सुखदा के वेदना से भरे हुए शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे और नैना लल्लू को गोद में लिये जैसे उनके सम्मुख खड़ी थी।


उसी रात को शांतिकुमार ने अमर के नाम खत लिखा। वह उन आदमियों में थे, जिन्हें और सभी कामों के लिए समय मिलता है, खत लिखने के लिए नहीं मिलता। जितनी अधिक घनिष्टता, उतनी ही बेफ़िक्री। उनकी मैत्री खतों से कहीं गहरी होती है। शांतिकुमार को अमर के विषय

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कर्मभूमि