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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२८६

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अमर वहीं जमीन पर बैठ गया और बोला—कुछ खातिर-तवाज़ा तो की नहीं, उलटे और फटकार सुनाने लगे। देहातियों में रहता हूँ, जेंटलमेन बनूं तो कैसे निबाह हो। तुम खूब आये भाई, कभी-कभी गप-शप हुआ करेगी। उधर की खैरआफ़ियत कहो। यह तमने नौकरी क्या कर ली। डटकर कोई रोजगार करते, सूझी भी तो गुलामी।

सलीम ने गर्व से कहा—गुलामी नहीं है जनाब, हुकूमत है। दस-पाँच दिन में मोटर आयी जाती है, फिर देखना किस शान से निकलता हूँ। मगर तुम्हारी यह हालत देखकर दिल टूट गया। तुम्हें यह भेस छोड़ना पड़ेगा।


अमर के आत्म-सम्मान को चोट लगी। बोला—मेरा खयाल था, और है, कि कपड़े महज़ जिस्म की हिफाजत के लिए है, शान दिखाने के लिए नहीं।

सलीम ने सोचा, कितनी लचर-सी बात है। देहातियों के साथ रहकर अक्ल भी खो बैठा। बोला—खाना भी तो महज़ जिस्म की परवरिश के लिए खाया जाता है, तो सूखे चने क्यों नहीं चबाते? सूखे गेहूँ क्यों नहीं फांकते? क्यों हलवा और मिठाई उड़ाते हो?

'सूखे चने ही चबाता हूँ!'

'झूठे हो। सूखे चने पर ही यह सीना निकल आया है। मुझसे डयोढ़े हो गये, मैं तो शायद पहचान भी न सकता।

'जी हाँ, यह सूखे चनों ही की करामात है। ताकत साफ़ हवा और संयम में है। हलवा-पूरी से ताकत नहीं होती, सीना नहीं निकलता, पेट निकल आता है। २५ मील पैदल चला आ रहा हूँ। है दम? जरा पाँच ही मील चलो मेरे साथ।

'मुआफ कीजिए। किसी ने कहा है—बड़ी रानी, तो आओ पीसो मेरे साथ। तुम्हें पीसना मुबारक हो। तुम यहाँ कर क्या रहे हो?'

'अब तो आये हो, खुद ही देख लोगे। मैंने जिन्दगी का जो नकशा दिल में खींचा था, उसी पर अमल कर रहा हूँ। स्वामी आत्मानन्द के आ जाने से काम में और भी सहूलियत हो गयी है।'

ठण्ड ज्यादा थी। सलीम को मजबूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा।

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कर्मभूमी