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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३२३

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लिखे खत देखकर डर रहा था कि घर से कोई बरी खबर तो नहीं आई।

सलीम ने सिर उठाया और हसरत भरे स्वर में बोला--उस दिन वह मेरे एक दोस्त नहीं आये थे, वहीं देहातियों की-सी सूरत बनाये हुए। वह मेरे बचपन के साथी है। हम दोनों ने एक ही कालेज में पढ़ा। घर के लखपती आदमी हैं। बाप हैं, बाल-बच्चे हैं। इतने लायक हैं कि मुझे उन्होंने पढ़ाया। चाहते, तो किसी अच्छे ओहदे पर होते। फिर उनके घर ही किस बात की कमी है; मगर गरीबों का इतना दर्द है कि घर-बार छोड़कर यहीं एक गाँव में किसानों की खिदमत कर रहे हैं। उन्हीं को गिरफ्तार करने का मुझे हुक्म हुआ है।

खानसामा और समीप आकर जमीन पर बैठ गया--क्या क़सूर किया था हुजूर उन बाबू साहब ने?

'क़सूर कोई नहीं, यही कि किसानों की मुसीबत उनसे नहीं देखी जाती।'

'हुजूर ने बड़े साहब को समझाया नहीं?'

'मेरे दिल पर इस वक्त जो कुछ गुजर रही है, वह मैं ही जानता हूँ हनीफ़, आदमी नहीं फरिश्ता है। यह है सरकारी नौकरी।'

'तो हुजूर को जाना पड़ेगा?'

'हाँ, इसी वक्त! इस तरह दोस्ती का हक़ अदा किया जाता है!'

'तो उन बाबू साहब को नजरबन्द किया जायगा हुजूर?'

'खुदा जाने क्या किया जायगा। ड्राइवर से कहो, मोटर लाये। शाम तक लौट आना जरूरी है।'

ज़रा देर में मोटर आ गयी। सलीम उसमें आकर बैठा तो उसकी आँखें सजल थीं।


आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाये उनका आशीर्वाद बटोर रही थी।

कर्मभूमि
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