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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३५८

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इन विचारों से तंग आकर उसने नैराश्य में मुंह छिपाया। अत्याचार हो रहा है। होने दो। मैं क्या करूँ? कर ही क्या सकता हूँ! मैं कौन हूँ! मुझसे मतलब? कमज़ोरों के भाग्य में जब तक मार खाना लिखा है, मार खायेंगे। मैं ही यहाँ क्या फूलों की सेज पर सोया हुआ हूँ। अगर संसार के सारे प्राणी पशु हो जायँ, तो मैं क्या करूँ। जो होगा, होगा। यह भी ईश्वर की लीला है! वाह रे तेरी लीला! अगर ऐसी ही लीलाओं में तुम्हें आनन्द आता है, तो तुम दयामय क्यों बनते हो? ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर, क्या यह ईश्वरी नियम है?

जब सामने कोई विकट समस्या आ जाती थी, तो उसका मन नास्तिकता की ओर झुक जाता था। सारा विश्व श्रृंखला-हीन, अव्यवस्थित, रहस्यमय जान पड़ता था।

उसने बान बटना शुरू किया, लेकिन आँखों के सामने एक दूसरा ही अभिनय हो रहा था---वहीं सलोनी है, सिर के बाल खुले हुए, अर्धनग्न। मार पड़ रही है। उसके रुदन की करुणाजनक ध्वनि कानों में आने लगी। फिर मुन्नी की मूर्ति सामने आ खड़ी हुई। उसे सिपाहियों ने गिरफ्तार कर लिया है और खींचे लिये जा रहे हैं। उसके मुंह से अनायास ही निकल गया--हाँय हाँय, यह क्या करते हो। फिर वह अचेत हो गया और बान बटने लगा।

रात को भी यही दृश्य आँखों में फिरा करते; वही कंदन कानों में गूंजा करता। इस सारी विपत्ति का भार अपने सिर पर लेकर वह दबा जा रहा था। इस भार को हलका करने के लिए उसके पास कोई साधना न थी। ईश्वर का बहिष्कार करके उसने मानो नौका का परित्याग कर दिया था और अथाह जल में डुबा जा रहा था। कर्मजिज्ञासा उसे किसी तिनके का सहारा न लेने देती थी। वह किधर जा रहा है और अपने साथ लाखों निस्सहाय प्राणियों को किधर लिये जा रहा है? इसका क्या अन्त होगा? इस काली घटा में कहीं चाँदी की झालर है? वह चाहता था, कहीं से आवाज़ आये, बढ़े आओ। बढ़े आओ। यही सीधा रास्ता है। पर चारों तरफ़ निविड़, सघन अन्धकार था। कहीं से कोई आवाज नहीं आती, कहीं प्रकाश नहीं मिलता। जब वह स्वयं अन्धकार में पड़ा हुआ है, स्वयं नहीं जानता---

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कर्मभूमि