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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३७५

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'पुलिसवालों ने कई आदमियों को मार डाला। अब नहीं रहा जाता, मैं इस घोष को मजा चखा देना चाहता हूँ।'

'आप कुछ भंग तो नहीं खा गये हैं। भला यह रिवालवर चलाने का मौका है?'

'अगर यों न दोगे, तो मैं छीन लूंगा। इस दुष्ट ने गोलियाँ चलवाकर चार-पाँच आदमियों की जान ले ली। दस-बारह आदमी बुरी तरह ज़ख्मी हो गये हैं। कुछ इनको भी तो मजा चखाना चाहिए। मरना तो है ही।'

'मेरा रिवालवर इस काम के लिए नहीं है।'

आत्मानन्द यों भी उद्दण्ड आदमी थे। इस हत्याकाण्ड ने उन्हें बिल्कुल उन्मत्त कर दिया था। बोले--निरपराधों का रक्त बहाकर आततायी चला जा रहा है, तुम कहते हो रिवालवर इस काम के लिए नहीं है! फिर और किस काम के लिए है? मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ भैया, एक क्षण के लिए दे दो। दिल की लालसा पूरी कर लूं। कैसे-कैसे वीरों को मारा है इन हत्यारों ने, कि देखकर मेरी आँखों में खून उतर आया।

सलीम बिना कुछ उत्तर दिये वेग से अहिराने की ओर चला। रास्ते में सभी द्वार बन्द थे, कुत्ते भी कहीं भागकर जा छिपे थे।

एकाएक एक घर का द्वार झोंके के साथ खुला और एक युवती सिर खोले, अस्तव्यस्त, कपड़े खून से तर, भयातुर हिरनी सी आकर उसके पैरों से चिपट गयी और सहमी हुई आँखों से द्वार की ओर ताकती हुई बोली--

'मालिक, यह सब सिपाही मुझे मारे डालते हैं।'

सलीम ने तसल्ली दी--घबराओ नहीं, घबराओ नहीं। माजरा क्या है?

युवती ने डरते-डरते बताया कि घर में कई सिपाही घुस गये हैं। इसके आगे वह और कुछ न कह सकी।

'घर में कोई आदमी नहीं है?'

'वह तो भैंसें चराने गये हैं।'

'तुम्हारे कहाँ चोट आयी?'

'मझे चोट नहीं आयी। मैंने दो आदमियों को मारा है।'

उसी वक्त दो कांसटेबल बन्दूकें लिये घर से निकल आये और युवती को

कर्मभूमी
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