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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३८३

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ताकतें घटा रही हैं। क्या तुम्हें इससे आनेवाले जमाने का कुछ अन्दाज नहीं होता? हम इसलिये गुलाम है कि हमने खुद गुलामी की बेड़ियां अपने पैरों में डाल ली है। जानते हो कि यह बेड़ी क्या है? आपस का भेद। जब तक हम इस बेड़ी को काटकर प्रेम करना न सीखेंगे, सेवा में ईश्वर का रूप न देखेंगे, हम गुलामी में पड़े रहेंगे। मैं यह नहीं कहता कि जब तक भारत का हरेक व्यक्ति इतना बेदार न हो जायेगा, तब तक हमारी नजात न होगी। ऐसा तो शायद कभी न हो, पर कम से कम उन लोगों के अन्दर तो यह रोशनी आनी ही चाहिए, जो कौम के सिपाही बनते हैं। पर हममें कितने ऐसे हैं जिन्होंने अपने दिल को प्रेम से रोशन किया हो? हममें अब भी वहीं ऊँच-नीच का भाव है, स्वार्थ लिप्सा है, अहंकार है।

बाहर ठंड पड़ने लगी थी। दोनों मित्र अपनी-अपनी कोठरियों में गये। सलीम जवाब देने के लिए उतावला हो रहा था; पर वार्डन ने जल्दी की और उन्हें उठना पड़ा।

दरवाज़ा बन्द हो गया, तो अमरकान्त ने एक लम्बी साँस ली और फरियादी आँखों से छत की तरफ देखा। उसके सिर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। उसके हाथ कितने बेगुनाहों के खून से रँगे हुए हैं। कितने यतीम बच्चे और अबला विधवाएँ उसका दामन पकड़कर खींच रही हैं! उसने क्यों इतनी जल्दबाजी से काम किया? क्या किसानों की फरियाद के लिए यही एक साधन रह गया था? और किसी तरह फरियाद की आवाज नहीं उठाई जा सकती थी? क्या यह इलाज बीमारी से ज्यादा असाध्य नहीं है? इन प्रश्नों ने अमरकान्त को पथभ्रष्ट-सा कर दिया। इस मानसिक संकट में काले खाँ की प्रतिमा उसके सम्मुख आ खड़ी हुई। उसे आभास हुआ कि वह उससे कह रही है--ईश्वर की शरण में जा। वहीं तुझे प्रकाश मिलेगा।


अमरकान्त ने वहीं भूमि पर मस्तक रखकर शुद्ध अन्तःकरण से अपने कर्तव्य की जिज्ञासा की---भगवान्, मैं अन्धकार में पड़ा हुआ हूँ। मुझे सीधा मार्ग दिखाइये।

कर्मभूमि
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