सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

'सोचते तो ऐसा न कहते।'

'सोचा है इसीलिए ऐसा कह रहा हूँ।'

अमर ने कठोर स्वर में कहा—क्या कर रहे हो सलीम! क्यों हुज्जत कर रहे हो? इससे फायदा?

सलीम ने तेज़ होकर कहा—मैं हुज्जत कर रहा हूँ? वाह री आपकी समझ! सेठजी मालदार हैं हुक्कामरस हैं, इसलिए वह हुज्जत नहीं करते। 'मैं गरीब हूँ, कैदी हूँ, इसलिए हुज्जत करता हूँ!

सेठजी बुजर्ग हैं।'

'यह आज ही सुना कि हुज्जत करना बुजुर्गी की निशानी है।'

अमर अपनी हँसी को न रोक सका, बोला—यह शायरी नहीं है भाईजान कि जो मुंह में आया बक गये। ये ऐसे मुआमले हैं, जिन पर लाखों आदमियों की जिन्दगी बनती-बिगड़ती है। पूज्य सेठजी ने इस समस्या को सुलझाने में हमारी मदद की है, जैसा उनका धर्म था। और इसके लिए हमें उनका मशकूर होना चाहिए। हम इसके सिवा और क्या चाहते हैं कि गरीब किसानों के साथ इन्साफ़ किया जाय और जब उस उद्देश्य को पूरा करने के इरादे से एक ऐसी कमेटी बनाई जा रही है, जिससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह किसानों के साथ अन्याय करे, तो हमारा धर्म है कि उसका स्वागत करें।

सेठजी ने मुग्ध होकर कहा—कितनी सुन्दर विवेचना है! वाह! लाट साहब ने खुद तुम्हारी तारीफ की।

जेल के द्वार पर मोटर का हार्न सुनायी दिया। जेलर ने कहा—लीजिए देवियों के लिए मोटर आ गयी। आइए, हम लोग चलें। देवियों को अपनी-अपनी तैयारियांँ करने दें। बहनो, मुझसे जो कुछ खता हुई हो, मुआफ़ कीजिएगा। मेरी नीयत आपको तकलीफ़ देने की न थी हाँ, सरकारी नियमों से मजबूर था।

सब-के-सब एक ही लारी में जायँ, यह तय हुआ। रेणुका देवी का आग्रह था। महिलाएँ अपनी तैयारियांँ करने लगीं। अमर और सलीम के कपड़े भी यही मँगवा लिये गये। आधे घण्टे में सब-के-सब जेल से निकले।

सहसा एक दूसरी मोटर आ पहुँची और उस पर से लाला समरकान्त, हाफ़िज़ हलीम, डा० शांतिकुमार और स्वामी आत्मानन्द उतर पड़े।

४०८
कर्मभूमि