सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

हमेशा तुम्हारी दुआ समझूँगा। वादा तो नहीं करता; लेकिन मुझे यकीन है, कि मैं अपने दोस्तों से आपको कुछ काम दिला सकूँगा।

अमरकान्त ने पहले पठानिन के लिए 'तुम' का प्रयोग किया था। चलते समय तक वह तुम 'आप' में बदल गया था। सुरुचि, सुविचार, सदभाव, उसे यहाँ सब कुछ मिला। हाँ उस पर विपन्नता का आवरण पड़ा हुआ था। शायद सकीना ने यह 'आप' और 'तुम' का विवेक उत्पन्न कर दिया था।

अमर उठ खड़ा हआ। बुढ़िया अंचल फैलाकर उसे दुआएँ देती रही।

अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा, तो लाला समरकान्त ने पूछा--तुम दुकान बन्द करके कहाँ चले गये थे ? इसी तरह दुकान पर बैठा जाता है ?

अमर ने सफ़ाई दी--बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आयी थी। बहुत अँधेरा हो गया था। मैंने समझा कहीं गिर-गिरा पड़े इसलिए उसे घर तक पहुँचाने चला गया था। वह तो रुपये लेती ही न थी ; पर जब बहुत देर हो गयी, तो मैंने रोकना उचित न समझा।

'कितने रुपये दिये ?'

'पाँच।'

लालाजी को कुछ धैर्य हुआ।

'और कोई असामी आया था? किसी से कुछ रुपये वसूल हए ?'

'जी नहीं।'

'आश्चर्य है।'

'और कोई तो नहीं आया, हाँ वही बदमाश काले खां सोने की एक चीज बेचने लाया था। मैंने लौटा दिया।'

समरकान्त की त्यौरियाँ बदलीं--क्या चीज थी ?

'सोने के कड़े थे। दस तोले बताता था।'

'तुमने तौला नहीं !'

'मैंने हाथ से छुआ तक नहीं।'

'हाँ, क्यों छूते, उसमें पाप लिपटा हुआ था न ! कितना मांगता था ?'

'दो सौ !'

'झूठ बोलते हो।'

'शुरू दो सौ से किया था ; पर उतरते-उतरते ३०) तक आया था।'

४०
कर्मभूमि