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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/५२

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'कभी नहीं।'

'लड़ाई तो इसी बात पर हुई।'

'तुम उस आदमी से कह सकते थे-- दादा आ जायें तब आना।'

'और अगर वह न मानता? उसे तत्काल रुपये की जरूरत थी।'

'आपद्धर्म भी तो कोई चीज है?'

'वह पाखंडियों का पाखण्ड है।'

'तो मैं तुम्हारे निर्जीव आदर्शवाद को भी पाखंडियों का पाखंड समझती हूँ।

एक मिनट तक दोनों थके हुए योद्धाओं की भाँति दम लेते रहे। तब अमरकान्त ने कहा-नैना पुकार रही है।

'मैं तो तभी चलूंगी, जब तुम वादा करोगे!'

अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा- तुम्हारी खातिर से कहो, वादा कर लूं; पर मैं उसे पूरा नहीं कर सकता। यही हो सकता है कि मैं घर की किसी बात से सरोकार न रखूँ।

सुखदा निश्चयात्मक रूप से बोली--यह इससे कहीं अच्छा है, कि रोज घर में लड़ाई होती रहे। जब तक इस घर में हो, इस घर की हानि-लाभ का तुम्हें विचार करना पड़ेगा।

अमर ने अकड़कर कहा-मैं आज इस घर को छोड़ सकता हूँ।

सुखदा ने बम-सा फेंका--और मैं?

अमर विस्मय से सुखदा का मुँह देखने लगा।

सुखदा ने उसी स्वर में फिर कहा- इस घर से मेरा नाता तुम्हारे आधार पर है। जब तुम इस घर में न रहोगे, तो मेरे लिये यहाँ क्या रखा है। जहाँ तुम रहोगे वहीं मैं भी रहूँगी।

अमर ने संशयात्मक स्वर में कहा-तुम अपनी माता के साथ रह सकती हो।

'माता के साथ क्यों रहूँ? मैं किसी की आश्रित नहीं रह सकती। मेरा दुःख-सुख तुम्हारे साथ है। जिस तरह रखोगे, उसी तरह रहूंगी। मैं तभी देखूंगी, तुम अपने सिद्धांतों के कितने पक्के हो। मैं प्रण करती हूँ कि तुमसे कुछ न मांगूंगी। तुम्हें मेरे कारण जरा भी कष्ट न उठाना

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कर्मभूमि